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राजनीतिक फंडिंग पर उल्टी चाल

प्रकाश कारात
वित्त मंत्री ने संघीय बजट में यह स्वीकार किया है कि हमारे देश में राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग का कोई पारदर्शी तरीका है ही नहीं. इस स्थिति में सुधार करने के लिए उन्होंने कुछ कदमों का प्रस्ताव किया है ताकि, ‘‘भारत में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को स्वच्छ बनाया जा सके.’’ इसके लिए उन्होंने तीन कदमों का प्रस्ताव किया है:

(1) कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी भी व्यक्ति से ज्यादा से ज्यादा 2,000 रु0 की राशि ही नकद प्राप्त कर सकती है;

(2) इस राशि से ज्यादा के चंदे चैक के जरिए या डिजिटल माध्यम से ही दिए जा सकेंगे; और

(3) चुनावी बांड जारी किए जाएंगे, जिनके मामले में कोई भी चंदादाता चैक या डिजिटल भुगतान के जरिए ही, अधिकृत बैंकों से बांड खरीद सकेगा. इन बांडों को जारी किए जाने की तिथि से एक निश्चित समय सीमा के अंदर ही और किसी रजिस्टरशुदा राजनीतिक पार्टी के खाते में ही भुनाया जा सकेगा.

सब मिलाकर ये कदम राजनीतिक फंडिंग की मुख्य समस्या पर काबू पाने में मदद करने वाले नहीं हैं. यह मुख्य समस्या है प्रमुख राजनीतिक पार्टियों द्वारा और खासतौर पर चुनाव में इस्तेमाल के लिए लिया जाने वाला बहुत भारी अवैध या काला पैसा.

वास्तव में जिन कदमों का प्रस्ताव किया गया है पीछे ले जाने वाले हैं और ये कदम राजनीति तथा चुनाव में काले धन के उपयोग को रोकने में कोई मदद नहीं करने जा रहे हैं.

अब तक मौजूद कानून इसका तकाजा करता था कि 20,000 रुपये या उससे ज्यादा राशि के चंदों के मामले में राजनीतिक पार्टियां चंदा देने वाले का नाम, पता, पैन नंबर आदि विवरण उपलब्ध कराएंगी. अब इसे बदलकर यह व्यवस्था लायी जा रही है कि अब राजनीतिक पार्टियां किसी से भी 2000 रुपये तक की ही रकम नकद ले सकेंगी. लेकिन, इससे बेहिसाबी धन हासिल करने से रोकने में कोई मदद नहीं मिलने जा रही है. हां! इतना जरूर होगा कि 2000 रुपये की सीमा से कम से नकद चंदों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी.

इससे तो कहीं बेहतर था कि यह व्यवस्था की गयी होती कि 2000 रुपये या उससे ज्यादा के चंदे को, वह चाहे नकद हो या चैक से या डिजिटल माध्यम से, संबंधित राजनीतिक पार्टी को पूरे विवरण के साथ घोषित करना होगा, जैसा अब तक 20,000 रु0 या उससे से ज्यादा के चंदे के मामले में होता था.

वित्त मंत्री के बजट भाषण में चुनावी बांडों की जो अवधारणा पेश की गयी है, राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग का पारदर्शी तरीका विकसित करने के लक्ष्य के ही खिलाफ पड़ती है. वित्त मंत्री का कहना था: “चंदादाताओं ने भी चैक या अन्य पारदर्शी तरीकों से चंदा देने के प्रति अपनी अनिच्छा जतायी है क्योंकि इससे उनकी पहचान उजागर हो जाएगी और इसके प्रतिकूल परिणाम होंगे.”

यही वह तर्क है जो कार्पोरेटों तथा कारोबारियों द्वारा बेहिसाबी या काले धन में चंदा देने के लिए दिया जाता है. चुनावी बांड योजना में दानदाता की पहचान उजागर नहीं होगी. यह भी प्रस्ताव है कि आयकर कानून में ही संशोधन कर दिया जाए ताकि राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बांड से प्राप्त धन का स्रोत बताने की जरूरत न रह जाए.

प्रस्तावित बांड यानी उल्टी चाल
वास्तव में इस सबसे होगा यह कि 20 हजार रुपये या उससे ज्यादा के जो भी चंदे राजनीतिक बांड के रास्ते आएंगे, उनके लिए राजनीतिक पार्टियों को आयकर विभाग को दिए गए अपने विवरणों में, दानदातावार विवरण देने की जरूरत नहीं रह जाएगी.

इस तरह राजनीतिक फंडिंग के मामले में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के बजाए, मोदी सरकार वास्तव में इसी का रास्ता बना रही है कि राजनीतिक बांडों के जरिए बड़े पैमाने पर ऐसे चंदे आएं, जो बेनाम ही बने रहेंगे. फिर भी गोपनीयता में एक अपवाद भी होगा. तात्कालीन सरकार चाहे तो बैंकों से इसकी जानकारी हासिल करने की स्थिति में होगी कि संबंधित बांड किस ने खरीदे थे?

हालांकि यह तो अभी स्पष्ट नहीं है कि प्रस्तावित बांड किस तरह के होंगे. फिर भी अगर ये बांड बिअरर बांडों के रूप में होंगे तो उनके दुरुपयोग की संभावनाएं और ज्यादा हो जाएंगी. इस तरह के बांडों के जरिए पैसा चलाने तथा कर चोरी करने के रास्ते निकाल लिए जाएंगे. ऐसे अनेक उद्यमी तरीके से हो सकते हैं जिनके जरिए इन बांडों का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टी और कारोबार के मिले-जुले खेल में किया जा सकता है.

प्रस्तावित बदलावों को वित्त विधेयक के जरिए, संबंधित कानूनों में संशोधनों के रूप में लागू किया जाएगा. ऐसा कर के सरकार ‘मनी बिल’ के माध्यम से ये बदलाव लाना चाहती है. अगर वह इसमें कामयाब हो जाती है तो इसका मतलब यह है कि राजनीतिक फंडिंग तथा राजनीतिक पार्टियों के चुनावी खर्चों से जुड़े इस मामले में राज्यसभा की नहीं सुनी जाएगी.

लेकिन, सचाई यह है कि आयकर कानून में और जन प्रतिनिधित्व कानून में प्रस्तावित संशोधनों का न तो भारत के कंसोलिडेटेड फंड से जुड़े मामलों से कुछ लेना-देना है और न किसी तरह का कर लगाने से. इसलिए, उन्हें ‘मनी बिल’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. इस मामले में ऐसा करना, सिर्फ राज्यसभा को धता बताकर चलने के लिए, ‘मनी बिल’ की अवधारणा का ही दुरुपयोग करना होगा.

वास्तव में सरकार का यह दावा पूरी तरह से संदेहास्पद तथा पाखंडपूर्ण है कि वह राजनीतिक फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश कर रही है. पिछले साल, 2016-17 के संघीय बजट में, वित्त विधेयक के जरिए, विदेशी चंदा नियमन कानून में एक संशोधन किया गया था. इस संशोधन का मकसद था, विदेशी कंपनियों की भारतीय सब्सीडियरियों के चंदों को, भारतीय स्रोत से चंदे की तरह लिया जाए.

यह संशोधन विगत प्रभाव से किया गया था, जिसका अर्थ था दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को निष्प्रभावी बनाना जिसमें भाजपा और कांग्रेस, दोनों को कानून का उल्लंघन कर विदेशी चंदा हासिल करने का दोषी करार दिया गया था. यह चंदा वेदांता नाम की एक विदेशी कंपनी से लिया गया था, जिसका मुख्यालय लंदन में है.

यह संशोधन भी ‘मनी बिल’ के रास्ते से ही पारित किया गया था. इसके बाद अब राजनीतिक पार्टियों के लिए, विदेशी बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशनों की भारतीय सब्सीडिरियों से चंदा लेना वैध बना दिया गया है.

अब प्रस्तावित ताजातरीन कदमों के बाद तो बहुराष्ट्रीय निगमों को राजनीतिक या चुनावी बांडों के जरिए राजनीतिक पार्टियों को, बिना किसी पूछताछ के चंदा देने का खुला मौका मिल जाएगा. वास्तव में इस कदम के जरिए मोदी सरकार ने राजनीतिक पार्टियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की ही इजाजत दे दी है.

कार्पोरेट फंडिंग यानी फंडिंग का वर्गीय पक्ष
राजनीतिक फंडिंग और चुनाव खर्च के समूचे प्रश्न का एक वर्गीय पहलू भी है. बड़ी पूंजी के राजनीतिक पार्टियों में और चुनावी प्रणाली में घुस आने पर न तो सरकार को आपत्ति है और न चुनाव आयोग को. उनकी चिंता तो सिर्फ इतनी है कि यह वैध तरीके से होना चाहिए.

भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही राजनीतिक पार्टियों की कार्पोरेट फंडिंग के पक्ष में हैं. दोनों ही चुनाव के दौरान किए जाने वाले खर्च की कोई सीमा लगाए जाने के भी खिलाफ हैं. मिसाल के तौर पर 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पत्र-पत्रिकाओं में तथा इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों में विज्ञापनों पर ही सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए थे. इसी प्रकार, निजी विमानों तथा हैलीकॉप्टरों को किराये पर लेने में बहुत भारी रकम खर्च की गयी थी.

दूसरी ओर सीपीएम जैसी राजनीतिक पार्टियां कार्पोरेटों के चंदे के ही खिलाफ है. अगर जरूरी समझा जाए तो कार्पोरेट कंपनियां एक चुनाव फंड में चंदा दे सकती हैं, जिसे चुनाव आयोग द्वारा संचालित किया जा सकता है और जिससे चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों के लिए सार्वजनिक फंडिंग की व्यवस्था की जा सकती है.

वर्तमान नवउदारवादी नैतिक वातावरण में सभी पूंजीवादी पार्टियां चुनाव लडऩे के लिए धन-बल का इस्तेमाल करना चाहती हैं. दुर्भाग्य से चुनाव आयोग भी धन बल के ऐसे दुरुपयोग को तो हतोत्साहित नहीं करता है, वह सिर्फ आम लोगों के छोटे-छोटे चंदों पर कोड़ा फटकारता है. चुनाव आयोग चुनाव प्रचार के लिए पोस्टर, बैनर आदि के प्रयोग पर तो रोक लगाता है, जिससे सीमित आर्थिक संसाधनों वाली राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव प्रचार में बाधा पड़ती है, लेकिन राजनीतिक पर्टियों को टेलीविजन तथा पत्र-पत्रिकाओं के जरिए विज्ञापन करने के लिए और महंगे-महंगे होर्डिंग लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है.

वैसा ही वर्गीय नजरिया एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफाम्र्स जैसे एनजीओ संगठनों का है, जो सीधे जनता से दान बॉक्स या दान पेटी या बाल्टियों के माध्यम से किए जाने वाले चंदों को, ‘अज्ञात’ स्रोतों से प्राप्त धन की तरह पेश करते हैं. लेकिन, राजनीतिक पार्टियों द्वारा ‘मेज के नीचे से’ तथा औपचारिक हिसाब-किताब से बाहर ली जाने वाली भारी रकमों के मामले में कुछ नहीं करते हैं.

रास्ता क्या है?
तत्काल समग्र चुनाव सुधार किए जाने की जरूरत है और इसमें राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग में सुधार भी शामिल है.

(1) चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों द्वारा विभिन्न मदों के तहत किए जाने समूचे खर्चे की एक सीमा तय कर दी जाए. मिसाल के तौर पर आम चुनाव में किसी राजनीतिक पार्टी के लिए विज्ञापनों पर खर्च की 500 करोड़ रुपये की सीमा तय की जा सकती है, जिसे वैध माना जाए और जितना खर्च करने पर कोई सवाल नहीं उठेगा. अगर चुनावों में काले धन की भूमिका पर अंकुश लगाना है तो राजनीतिक पार्टी के चुनावी खर्च की सीमा तय करनी ही होगी.

(2) जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रासंगिक प्रावधान में संशोधन कर, अपने उम्मीदवार की ओर से पार्टी द्वारा किए जाने वाले खर्चे को उम्मीदवार के खर्चे में जोड़ा जाए.

(3) राजनीतिक पार्टियों को दिए जाने वाले 2000 रुपये या उससे ज्यादा के सभी चंदों को, दानदाता के नाम व अन्य विवरणों के साथ, सार्वजनिक किया जाए.

(4) अगर चुनावी बांड जारी किए जाने हैं, तो उन्हें प्राप्त करने वाली पार्टी को पूरे ब्यौरे के साथ उनका एलान करना चाहिए.

(5) मान्यताप्राप्त राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रचार सामग्री, घोषणापत्र, वाहनों के लिए ईंधन आदि के रूप में सरकारी फंडिंग की व्यवस्था की जाए.

(6) राजनीतिक पार्टियों को चंदे में काला धन देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए और ऐसा पैसा लेने वाली राजनीतिक पार्टियों पर दंड लगाया जाए.

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