प्रसंगवश

सजा जघन्यता से, उम्र से नहीं

निर्भया को क्या न्याय मिला? नहीं और शायद कभी मिल भी नहीं पाएगा. इतना जरूर है कि उसकी कुर्बानी कुछ हद तक बेकार नहीं गई. बड़ा सच यह भी, निर्भया का सबसे जघन्य या जघन्यतम नाबालिग अपराधी दो दिन पहले रिहा न होता और संसद सत्र न जारी होता तो शायद ‘किशोर न्याय विधेयक’ (जुवेनाइल जस्टिस बिल) फिर लटक जाता. संतोष बस इतना कि जघन्य जुर्म के मामले में 18 के बजाए 16 साल के अपराधी को वयस्क माना जाएगा.

इस बात की गारंटी फिर भी कहां कि 15 साल 11 महीने 30 दिन का अपराधी ऐसी दरिन्दगी को अंजाम देकर 3 साल बाद बाहर नहीं आ पाएगा? विधेयक पारित करने की जल्दबाजी थी, केन्द्रीय संसदीय मंत्री वेंकैया नायडू भी मानते हैं कि जनता के दबाव में विधेयक पारित किया गया यानी आग लगी तब कुआं खोदने की जरूरत समझी गई. इसका मतलब यह तो नहीं कि विधेयक अभी भी आधा अधूरा ही है, सुधार की और जरूरत थी, आगे भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता? सवाल फिर वही कि कब?

विडंबना कहें या सच्चाई जो भी, 1986 में वयस्क होने की उम्र 16 वर्ष थी जो 2000 में 18 हुई और अब फिर 2015 में 16 वर्ष हो गई यानी सजा का आधार अब भी अपराध की क्रूरता, जघन्यता नहीं बल्कि उम्र है.

विडंबना यह भी, भारत में वयस्कता निर्धारित करने के लिए अलग-अलग आयु सीमा निश्चित की गई है. मतदान के लिए 18, विवाह के लिए पुरुष 21, महिला 18 और सरकारी नौकरी के लिए 18 वर्ष की न्यूनतम आयु तय है. लेकिन कितना बड़ा अपवाद यह भी कि अदालत में गवाही देने के लिए गवाह की कोई न्यूनतम आयु तय नहीं है. बच्चा भी साक्ष्य देने के लिए सक्षम है बशर्ते इसके सही होने का भरोसा हो, इंकार का कोई पुख्ता आधार न हो.

अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में 18 साल से कम आयु के अपराधियों की सुनवाई वयस्क के समान होती है. पाकिस्तान, नाइजीरिया, सऊदी अरब, यमन, सूडान, कांगो, ईरान में नाबालिगों को अपराध की जघन्यता और सजा के प्रावधानों के तहत मृत्युदण्ड तक देने का प्रावधान है.

भारत में बीते 3 वर्षो के अपराधों का रिकॉर्ड देखें तो पता चलता है कि नाबालिग अपराधियों का प्रतिशत अमूमन 1.2 ही रहा. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2012 में कुल 23 लाख 87 हजार 188 अपराधों में 27 हजार 936 नाबालिग थे. वर्ष 2013 में 26 लाख 47 हजार 722 अपराधों में नाबालिगों की संख्या 31 हजार 725 रही जबकि वर्ष 2014 में 28 लाख 51 हजार 563 अपराधों में नाबालिगों की संख्या 33 हजार 526 रही.

बड़ा सच यह भी कि संचार क्रान्ति और सूचना तकनीक से समूची दुनिया में जबरदस्त बदलाव आया है. लोग जानकार हो रहे हैं और नाबालिग समय से पहले हर वो बात समझ, देख और जान लेते हैं जो पहले कम उम्र को देखते हुए संभव नहीं था. मौजूदा दौर में नाबालिग अपराधियों का जो निष्कर्ष निकल कर आ रहा है, बहुतेरे मामलों में इंटनेट पर उपलब्ध नीले जहर का प्रभाव ही ऐसे दुष्कृत्यों का कारण है.

स्वाभाविक है जहां बाल अपराधी कौतूहलवश, घटनाओं को, परिणाम सोचे बिना अंजाम देते हैं वहीं गरीबी, अशिक्षा के चलते अभिभावक खुद बच्चों को गलत कामों में धकेल, पैसे का जरिया बनाते हैं. उन्हें पता होता है कि बच्चों पर मामूली अपराध बनता है और कई बार डांट, फटकार और दयावश छोड़ भी दिया जाता है. यहीं वो ऐसे लोगों के संपर्क में आकर, यौन दुष्कर्मो का शिकार भी होते हैं और दुष्कृत्यों में लिप्त भी हो जाते हैं.

एक और सवाल फिर उठता है क्या अमेरिका और ब्रिटेन में लागू ‘सेक्स ऑफेन्डर रजिस्ट्री’ भारत में भी लागू होना चाहिए? ब्रिटेन में हर यौन अपराधी (बालिग-नाबालिग दोनों) के नाम, पते, जन्म तिथि और नेशनल इंश्योरेन्स नंबर पुलिस को दिए जाते हैं जिससे कहीं भी जाएं या पता बदलें, जानकारी पुलिस को अनिवार्य है. अमरीका में ऐसा 18 राज्यों में किया जाता है, शेष में नाबालिगों के नाम इसमें नहीं रखे जाते हैं.

मकसद यह कि रजिस्ट्री सार्वजनिक है, नाम दर्ज होते ही अपराधी के आसपास रहनेवालों को पत्र भेजकर, रिहा होने की जानकारी दी जाती है. भारत में भी इस दिशा में महिला और बालविकास मंत्री मेनका गांधी ने पहल की है. उनका मानना है कि भारत में भी जघन्य अपराधियों का एक रजिस्टर रखा जाए. वहीं ‘इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज’ के फंड में कटौती कर दी गई जिससे वो नाराज भी हैं क्योंकि महिलाओं के कार्यस्थल पर यौनहिंसा तथा जागरूकता को लेकर बुहत कुछ करना चाहती हैं जिसमें बाधा आएगी.

निश्चित रूप से ‘किशोर न्याय विधेयक’ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बनेगा, अपराधों में कमी भी आएगी लेकिन बदलते परिवेश में जल्द ही इस पर भी चिंता और सुधार की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अपराध पर सजा का प्रावधान, जघन्यता से हो न कि उम्र से.

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