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ऐसे कैसे खत्म होगा नक्सलवाद

दिवाकर मुक्तिबोध
यह तो होना ही था. सुकमा जिले के धुर नक्सली क्षेत्र चिंतागुफा से कुछ किलोमीटर दूर कसलपाड़ में सीआरपीएफ की दो टुकड़ियों को घेरकर नक्सलियों ने जो हमला किया वह कोई नई रणनीति के तहत नहीं था. घात लगाकर गोलियां बरसाने जैसी वारदातें जिसमें जनहानि सुनिश्चित रहती हैं, वे पहले भी कई बार कर चुके हैं. इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया.

सर्चिंग आपरेशन के लिए निकले केन्द्रीय रिजर्व पुलिस के जवानों को बड़े आराम से अपनी मांद में घुसने दिया और जैसे ही वे टारगेट में आए उन पर गोलियां बरसा दीं. जाहिर है, एकाएक हुए इस हमले में जवानों को संभलने या मोर्चा लेने का मौका नहीं मिला, लिहाजा फटाफट गोलीबारी में 2 अफसरों सहित 14 जवान मारे गए. इस घटना के साथ ही नक्सली यह संदेश देने में कामयाब रहे कि उनकी शक्ति भले ही क्षीण हो गई हो लेकिन मारक क्षमता में किसी तरह की कोई कमी नहीं आई है इसलिए यदि छत्तीसगढ़ सरकार आत्मसमर्पण करने वाले दूसरी-तीसरी पंक्ति के नक्सलियों की भारी भरकम संख्या देखकर मुदित हो रही हो, तो ऐसा करने का उसे हक है लेकिन नक्सली हिंसकों को बस्तर से समूल नष्ट करने का उसका मकसद कम से कम अर्द्ध सैनिकों एवं पुलिस के जवानों के बूटों से बस्तर के जंगलों को रौंदकर तो पूरा नहीं हो सकता.

दरअसल कसलपाड़ की घटना यकीनन आकस्मिक नहीं थी. नक्सली यदि एक दिसंबर को इस घटना को अंजाम नहीं देते तो वे आगे किसी भी दिन इसी तरह की हिंसा या इससे भयावह हिंसा करते क्योंकि ऐसा करना बस्तर में अपने अस्तित्व के अहसास को कायम रखने एवं राज्य पुलिस एवं केन्द्रीय बलों के बीच खौफ पैदा करने के लिए जरुरी था. इस घटना के बाद अब राज्य एवं केन्द्र सरकार एक बार फिर इस राष्ट्रीय समस्या पर विचार करने मजबूर हो गई है जैसे कि प्रत्येक बड़ी घटना के बाद होती रही है किन्तु हर उच्च स्तरीय बैठकों के बावजूद निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता और विचारों की पुनरावृत्ति भर होती है.

माओवादियों के खिलाफ रणनीति में कोई सुधार हुआ हो या उसमें नयापन आया हो, ऐसा कभी नजर नहीं आया जबकि बीते वर्षों में कई बड़ी घटनाएं घटी और नक्सली हमले में सैकड़ों जवान और आम आदमी मारे गए. रणनीति के स्तर पर यही होता रहा है – मसलन नक्सली क्षेत्रों में विकास कार्य, आधुनिक संचार प्रणाली का विकास, आधारभूत संरचनाओं का विकास जिसमें मुख्यतरू सड़कें है, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, जागरुकता अभियान, आदिवासियों को भयमुक्त करने अभियान तथा उनके लिए नौकरियों की व्यवस्था.

माओवादियों से संवाद सरकार की अंतिम प्राथमिकता है. लेकिन नवंबर 2000 में नया राज्य बनने के बाद बीते 13 वर्षों में छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा में भयावह वृद्धि क्यों हुई, इसका जवाब राज्य सरकार के पास नहीं है क्योंकि रणनीतिक स्तर पर जो कार्य योजना तय हुई है, उस दिशा में बस्तर में कुछ खास नहीं हुआ. भले ही राज्य सरकार यह कहकर अपनी पीठ थपथपाती रहे कि उसने हिंसाग्रस्त सरगुजा संभाग को नक्सली मुक्त कर दिया है लेकिन बस्तर का क्या? बीते 40 वर्षों से वह हिंसा के दंश को झेल रहा है. निरपराध आदिवासियों की मौतें देखता रहा है. क्या यह सिलसिला कभी थमेगा या हिंसा का दौर ऐसे ही जारी रहेगा, भले ही पुलिस या अर्धसैनिक बलों के जवान ही क्यों न मारे जाएं.

बस्तर में नक्सली हिंसा के संदर्भ में जैसा कि अमूमन होता रहा है, कसलपाड़ घटना भी लापरवाही की चूक है. इसमें कोई शक नही कि राज्य सरकार की परिवर्तित पुनर्वास नीति, जिसमें आर्थिक मुआवजे में जबर्दस्त उछाल लाया गया है, की वजह से नक्सलियों के समर्पण की घटनाओं में खासी वृद्धि हुई है. लेकिन यह पुलिस के दबाव की वजह से कम, माओवादियों के बीच चल रहे आंतरिक द्वंद की वजह से ज्यादा है. फिर भी भारी भरकम मुआवजे की लालच में एवं सरकारी नौकरी के साथ नए सिरे से जीवन प्रारंभ करने की ललक ने आत्मसमर्पण को बढ़ावा मिला है. नक्सल प्रभावित अन्य राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में शस्त्र डालने एवं आत्मसमर्पण की घटनाएं बढ़ी है.

हाल ही में लोकसभा में गृह राज्यमंत्री किरेन रिजूजू के द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष 11 नक्सल प्रभावित राज्यों में कुल 472 उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण किया जिससे आधे से भी ज्यादा 247 अकेले छत्तीसगढ़ के है. पिछले आंकड़े देखे तो 2011 में 394 आत्मसमर्पितों में से छत्तीसगढ़ से 20 थे जबकि सन 2012 में 445 में से 26 तथा 2013 में 283 में से केवल 28 नक्सलियों ने हथियार डाले. यानी इस संख्या में इस वर्ष बहुत तेजी आई. लेकिन यह सवाल अपनी जगह कायम है कि आत्मसमर्पण में वर्ष दर वर्ष बढ़ोतरी के बावजूद क्या बस्तर या देश से नक्सली आतंक खत्म हो जाएगा? क्या बंदूक की नोक पर ऐसा होगा?

केन्द्र में सत्तारुढ़ होने के तुरंत बाद मोदी सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सली समस्या को अपनी कार्य सूची में टॉप पर रखा तथा तद्नुसार उच्च स्तरीय बैठकों का भी सिलसिला शुरु हुआ. इस समस्या पर नई राष्ट्रीय नीति की भी परिकल्पना की गई जिसे अमलीजामा पहिनाने की कोशिशें भी प्रारंभ है लेकिन इसके साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकार को भी पूरी छूट दी गई है कि वे अपने स्तर इस समस्या पर निपटे तथा इसके लिए केन्द्र ने हर तरह की सहायता उपलब्ध कराने का वायदा किया है. चूंकि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद सबसे भीषण है अतरू केन्द्र का पूरा ध्यान इस राज्य पर है किन्तु इसके बावजूद बस्तर में हिंसा इसलिए नहीं थम रही है क्योंकि वहां के आदिवासियों को अपनी सुरक्षा को लेकर सरकार पर विश्वास नहीं है.

वे अभी भी नक्सली आतंक के साए में जी रहे हैं. नक्सलियों को पनाह देना उनकी मजबूरी है. यह इसलिए कि आखिरकार माओवादी सुरक्षा देने के साथ-साथ उन्हें सरकारी शोषण से मुक्त कराते हैं. प्रायरू हर घटना में उन्होंने घात लगाकर जो हमले किए या बारुदी विस्फोट किए वे गांव क्षेत्रों से दूर थे. अतरू कसलपाड़ घटना के संदर्भ में केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह का यह कहना कि नक्सलियों ने स्थानीय निवासियों का ढाल की तरह इस्तेमाल किया और इस वजह से सीआरपीएफ गोली का जवाब गोली से नहीं दे सकी, सही प्रतीत नहीं होता.

नक्सल मोर्चे पर अब जो स्थितियां नजर आ रही हैं, उससे यह धारणा बनती है कि बस्तर में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझ रहे माओवादियों के निशाने पर सिर्फ पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान है. हालांकि गांवों में आतंक कायम रखने वे निरअपराध आदिवासियों की जान लेते रहे है. आंकड़े बताते है कि सन 2009 में 586, 2010 में 713, 2011 में 275, 2012 में 146 और 2013 में 123 नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठे. इनमें से अधिकांश छत्तीसगढ़ के हैं. गांव वालों को सबक सीखाने एवं उन्हें पुलिस से दूर रखने के लिए मुखबिरों को जनअदालतें लगाकर निर्मम हत्याएं करना माओवादियों का शगल रहा है. यद्यपि अब ऐसी घटनाएं कम हुई हैं पर बस्तर में तैनात पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों को मारना एवं उनके हथियार लूटना उनकी प्राथमिकता है. जाहिर है यह सरकार के साथ अघोषित युद्ध है.

बहरहाल इस समस्या से निपटने के लिए तेज गति से काम करने की जरुरत है. इस मुगालते में रहना कि माओवादियों की कमर टूट गई, घातक है. कसलपाड़ की घटना से पुनरू यह सबक है कि नक्सल फ्रंट पर थोड़ी सी भी लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जा सकती. नक्सल रणनीतिकार जैसा कि अक्सर बताते है- चहुंओर से प्रयत्न करने की आवश्यकता है. मसलन आदिवासी क्षेत्रों का सर्वागीण विकास, बेहतर संचार प्रणाली, पुलिस का बेहतर सूचना तंत्र और आदिवासियों का विकास जो व्यवस्थागत खामियों के चलते सबसे कठिन और सबसे ज्यादा जरुरी है. लेकिन साथ ही एक सर्वमान्य फार्मूले के तहत माओवादियों से संवाद व उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने के पुरजोर प्रयत्न. सरकार पर चूंकि माओवादियों का विश्वास नहीं है इसलिए ज्यादा अच्छा होगा गैर सरकारी संगठन एवं संस्थाएं अथवा मानवतावादी एवं माओवादी विचारक सुलह वार्ता के लिए मध्यस्थता करने की जिम्मेदारी उठाएं. यकीनन नक्सल समस्या का एक मात्र हल यही है.

* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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