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मोदी की जीत के बाद के सवाल

बीजेपी या नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत ने कई नए प्रतिमान बनाए हैं और कई धारणाओं को तोड़ा है. 30 साल बाद किसी एक पार्टी को देश की जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है. लेकिन इसके साथ ही कई सवाल खड़े हो गए हैं.

क्या यह संसदीय लोकतंत्र का अंत है?
नरेंद्र मोदी का पूरा प्रचार अभियान ‘राष्ट्रपति स्टाइल’ (अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर) का था. उन्हें पहले ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया था और पार्टी में कोई दूसरा उनके आस-पास खड़ा भी नहीं था.

लेकिन इसी ‘राष्ट्रपति स्टाइल’ के प्रचार में कुछ ग़लतियां हुईं. जैसे कि- वडोदरा से नामांकन भरते हुए उन्होंने पहली बार अपनी पत्नी का नाम लिखा, जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लिखना अनिवार्य हो गया था. इसके बाद इस पर सवाल उठे जो ‘राष्ट्रपति स्टाइल’ चुनाव का दूसरा पहलू है.

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रचार को देखने, सुनने, पढ़ने पर आपको हर सार्वजनिक मंच पर बराक ओबामा के साथ उनकी पत्नी और बच्चे भी नज़र आते हैं. पश्चिम में परिवार को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और चूंकि आप वही शैली कॉपी करने की कोशिश कर रहे हैं तो आपसे भी इस बारे में सवाल पूछे जाएंगे.

बीजेपी का कहना था कि उसके विरोधी निजी मसले उठा रहे हैं. लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीवन में होते हैं उनका न कुछ निजी होता है, न हो सकता है. इसलिए उनको ऐसे सवालों के लिए तैयार रहना चाहिए.

नरेंद्र मोदी ने एक ताकतवर नेता के रूप में अपना प्रचार चलाया और सफल रहे. इसलिए बहुत से राजनीतिक दलों को लग सकता है कि यही एक तरीका हो सकता है, जिससे आप प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते हैं.

जो कामयाबी है वह नरेंद्र मोदी की है. उन्होंने ‘राष्ट्रपति स्टाइल’ प्रचार को एक सफल मॉडल, गुजरात मॉडल की तरह, उन्होंने स्थापित कर दिया है.

इस तरह का प्रचार करने के लिए आपको नरेंद्र मोदी की तरह ही मजबूत व्यक्तित्व चाहिए. जब वह दूसरे दलों में जब होगा तो शायद वह भी इसे करने का प्रयास करें. लेकिन मोदी ने एक रास्ता तो दिखा ही दिया है.

गठबंधन राजनीति का अंत हुआ?
अभी यह कहने का बहुत ठोस आधार नहीं है कि गठबंधन की राजनीति का अंत हो गया है. क्योंकि ऐसा नहीं है कि ज़मीनी सामाजिक हक़ीक़तें- जाति, धर्म, लिंग, ग्रामीण-शहरी भेद- ख़त्म हो गई हैं.

हालांकि इस बारे के चुनावों में यह ख़त्म होते दिखे हैं. इसमें आपको ग्रामीण-शहरी का फ़र्क पता नहीं चल रहा है, आपको वर्ग विभेद नहीं पता चल रहा है, जाति का फ़र्क पता नहीं चल रहा है. लगता है कि सब कुछ एक मजबूत, विशाल व्यक्तित्व में समा गया है.

वह मजबूत व्यक्तित्व पांच साल बाद कितना मजबूत रह जाएगा. उसे चुनौती देने के लिए पांच साल बाद और मजबूत व्यक्तित्व आएंगे या नहीं. या अगर यह व्यक्तित्व कमज़ोर होगा या केंद्र कमज़ोर होगा तो गठबंधन वापस आ जाएगा.

व्यक्ति केंद्रित राजनीति को छोटे-छोटे रूप में पहले भी देखा जा सकता था. जयललिता, मायावती, मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक, उमर अब्दुल्ला के रूप में. लेकिन केंद्र में लोग नहीं देख पा रहे थे, जो अब दिख रहा है.

क्या जातिगत राजनीति का अंत निकट है?
बीएसपी का खाता भी नहीं खुला लेकिन मायावती को इतनी आसानी से ख़ारिज कर देना ठीक नहीं होगा. जाति एक वास्तविकता है. इस देश में लोगों का धर्म बदल सकता है, जाति नहीं. आप धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन जाते हैं लेकिन किसी मुखर्जी की शादी नीची जाति वाले बंगाली से नहीं हो सकती.

यह एक ऐसी हकीकत है जो कई हज़ार साल से चली आ रही है और इसे ख़त्म करने में कई हज़ार साल लग भी सकते हैं. मैं इसे पथभ्रष्टता मानता हूं. इसमें मायावती और मायावती ब्रांड राजनीति का अंत देखना जल्दबाज़ी होगी.

मायावती की राजनीतिक वापसी होगी. जाटव वोट खिसक गया है उनसे लेकिन वह अंतत उनके पास ही लौटेगा क्योंकि उसके पास कोई विपल्प है नहीं. और नरेंद्र मोदी अपने आपको जिस नीची जाति का बताते हैं, जिस नीची जाति के वह हैं, वह जाटव से बहुत ऊपर है.

जाट और जाटव का साथ आना पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बदलाव की शुरुआत थी और यह बढ़कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में पहुंचा इस पर हैरानी होगी. मेरा ख़्याल है कि जितना राजनीतिक पंडित हैरान हैं उससे ज़्यादा मायावती हैरान होंगी कि यह हुआ कैसे?

क्या केंद्र में भी जम जाएंगे?
जिस तरह का जनादेश मिला है उससे नरेंद्र मोदी की चुनौतियां काफ़ी बढ़ गई हैं. अब मोदी के पास यह कहने का कोई आधार नहीं होगा, कोई बहाना नहीं होगा कि मैं यह काम इसलिए नहीं कर पा रहा हूं कि मेरे पास पूर्ण बहुमत नहीं है.

उनके सामने चुनौती यह है कि गुजरात में उन्होंने बहुत सख़्ती से शासन किया है. इसमें आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों और अपनी पार्टी को भी किनारे लगा देना शामिल है. विश्व हिंदू परिषद की कोई आवाज़ नहीं रह गई है, वनवासी संगठन का कोई वजूद नहीं है, या कोई सड़क चौड़ी होनी है तो जो 15 मंदिर रास्ते में पड़ते हैं वह गिरा दिए जाते हैं और कोई उसके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं निकालता- यह नरेंद्र मोदी की शैली है.

लेकिन यह करना गुजरात जैसे छोटे राज्य में संभव था. उनके पास बहुमत है, लेकिन केंद्र गुजरात नहीं है. यहां आप अपने हाथ से काम नहीं कर सके. यहां आप नियम-कानून बना सकते हैं, अमल नहीं करना सकते. अमल राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल हो जाएगा, उस पर दूसरा विवाद शुरू हो जाएगा.

नरेंद्र मोदी जिस तरह से काम करते हैं, उसके चलते पूरी संभावना है कि वह इस तरह की नीतियां बनाएं, इस तरह के काम करें कि अगला टर्म पर लक्ष्य करें. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि परिणाम आने के साथ ही नरेंद्र मोदी ने 2019 के लिए सोचना शुरू कर दिया होगा.

क्या मोदी दक्षिणपंथ का सबसे बड़ा चेहरा हैं?
मेरे ख़्य़ाल से वह बन गए हैं. जिस तरह केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा, बंगाल में- उन सब इलाक़ो में जहां बीजेपी का आधार नहीं है- वहां उन्होंने बीजेपी को पहुंचा दिया है.

तो इस बात की संभावना है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तस्वीर के साथ हर बीजेपी कार्यालय में नरेंद्र मोदी की भी तस्वीर लगेगी. दरअसल बीजेपी की मजबूरी होगी कि नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगाएं. उनके पास कोई विकल्प नहीं है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं.
बीबीसी से साभार

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