छत्तीसगढ़बस्तर

नक्सली रामन्ना से जीरम पर पूरी बातचीत

रायपुर | संवाददाता: नक्सली नेता रामन्ना ने छत्तीसगढ़ में नंद कुमार पटेल और दिनेश पटेल की हत्या को बड़ी गलती माना है. 25 मई को छत्तीसगढ़ के झीरमघाटी में कांग्रेस के काफिले पर किये गये हमले में पूर्व गृहमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल की हत्या को माओवादियों ने अपनी बड़ी गलती कहा है. भाकपा माओवादी के दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के सचिव रामन्ना ने एक साक्षात्कार की शक्ल में जारी विज्ञप्ति में कांग्रेस पर किये हमले को ‘आत्मरक्षात्मक युद्ध का हिस्सा’ करार दिया है. यहां हम रामन्ना की यह पूरी विज्ञप्ति इस उद्देश्य से प्रकाशित कर रहे हैं कि इसके आधार पर आम जनता को नक्सलियों के मुद्दे पर अपनी राय बनाने में सुविधा हो.

प्रश्न – आगामी चुनावों को लेकर आपकी पार्टी क्या नीति अपना रही है?
उत्तर – हमेशा की तरह इस बार भी हम चुनाव बहिष्कार का ही आह्वान कर रहे हैं. क्योंकि हमारा मानना है कि ये चुनाव महज ढोंग है. चुनाव यह तय करने का अवसर है कि शोषक लुटेरों में से कौन-कौन से सदस्य आगामी पांच सालों तक जनता को लूटेंगे और पीटेंगे. जनता में भी चुनावों को लेकर कोई उत्साह नहीं दिख रहा है. क्योंकि उसे अच्छी तरह पता है कि चुनावों से उसकी जिन्दगी में कोई मूलभूत बदलाव होने वाला नहीं है. सिर्फ कुछ स्थानीय जरूरतों, जाति या धर्म की भावनाओं, पैसों का प्रलोभन, शराब, भय, आतंक के चलते ही आम तौर पर लोग वोट डालते हैं. वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को सशस्त्र क्रांति के जरिए जड़ से बदलकर एक शोषणविहीन और जनवादी समाज की स्थापना करना हमारा लक्ष्य है. चुनावों के जरिए यह बदलाव संभव नहीं है.

प्रश्न – क्या इस बार का चुनाव बहिष्कार भी हिंसक रहेगा?
उत्तर – यह हमारे कहने या न कहने पर निर्भर नहीं है. हर बार की तरह इस बार भी शोषक सरकारें बड़ी तादाद में सशस्त्र बलों को उतारकर ‘निष्पक्ष’ और ‘स्वतंत्र’ मतदान सुनिश्चित करने के नाम पर व्यापक दमनचक्र चला रही हैं. गांवों पर हमले, तलाशी अभियान, गिरफ्तारियां, मारपीट, फर्जी मुठभेड़ें लगातार जारी हैं. जनता को अपनी आत्मरक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करना अनिवार्य है. इसलिए आपके सवाल के जवाब में मैं इतना ही कह सकता हूं कि चुनाव बहिष्कार अभियान को विफल करने के लिए जब सरकार दमनचक्र चलाती है, यानी हिंसात्मक तौर तरीकों पर उतर आती है तो उसका प्रतिरोध भी जरूर होगा.

प्रश्न – मतदान करने वालों की उंगली काट देने की आपकी धमकियां कहां तक उचित हैं?
उत्तर – यह एक कोरी बकवास है कि हमने वोट डालने वालों की उंगली काट देने की धमकी दे रखी है. पिछले 33 सालों से जारी दण्डकारण्य संघर्ष के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें हमने इस तरह की धमकी दी हो या फिर किसी पर भौतिक रूप से इस प्रकार का हमला किया हो. यह दरअसल शोषक सरकारों और उसके कार्पोरेट मीडिया का दुष्प्रचार है जो कि हर चुनाव के समय खासतौर पर किया जाता है. हमारा यह अभियान एक राजनीतिक कार्यक्रम है. इसमें जनता को चेतनाबद्ध करने पर ही हमारा मुख्य जोर रहेगा. हमें इस बात में जरा भी विश्वास नहीं है कि किसी राजनीतिक मकसद के लिए लोगों को डरा-धमकाकर गोलबंद किया जा सकता है.

लेकिन इस मुद्दे के दूसरे पहलू पर गौर किया जाना भी जरूरी है. वास्तव में सरकारें खुद ऐसा करती हैं. लोगों को वोट नहीं डालने पर होने वाले बुरे अंजाम के बारे में आतंकिंत किया जाता है. वोट न डालने पर राशन कार्ड जब्त कर लेने, चावल न देने, माओवादी बताकर जेल में डालने, मार डालने आदि धमकियां देना आम है. लेकिन मीडिया में इसकी खबरें कहीं भी नहीं दिखतीं.

प्रश्न – मतदान करना लोगों का एक जनवादी अधिकार है. चुनाव बहिष्कार का नारा देकर क्या आप इस अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं?
उत्तर – जिस प्रकार वोट देना एक जनवादी अधिकार है उसी प्रकार वोट नहीं देना भी. चुनावों का बहिष्कार भी लोगों के जनवादी तरीकों में विरोध जताने का एक स्वरूप है. हम लोगों के किसी अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं बल्कि उनसे यह कह रहे हैं कि वे अपने तमाम अधिकारों को पहचानें और उनका प्रयोग करें. हाल ही में सर्वोच्च अदालत को भी यह फैसला सुनाना पड़ा कि अगर किसी मतदाता को कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो तो उसे ‘नन आफ द अबव’ का विकल्प चुनने की व्यवस्था होनी चाहिए. इसका मतलब है अदालतों को भी, जो मौजूदा व्यवस्था का ही अंग हैं, यह स्वीकारना पड़ रहा है कि इस चुनावी प्रक्रिया में लोगों की दिलचस्पी लगातार कम होती जा रही है. इसलिए हम समझते हैं कि चुनाव का बहिष्कार करना भी लोगों का जायज और जनवादी अधिकार है. इतना ही नहीं, वर्तमान संसदीय लोकतंत्र को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार जनता को है.

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