प्रसंगवश

पठानकोट के सबक…..

ऐसा लगता है प्रधानमंत्री मोदी इतिहास रचने का जल्दी में है. वहीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने भी सेना से उपर ‘उड़ने’ की कोशिश की है. वह साल का आखिरी पखवाड़ा था. भारत और पाकिस्तान के लगातार दुर्घटनाओं की आशंकाओं से घिरे रहने वाले रिश्तों के कई भ्रम टूट रहे थे और इसी के बीच सामने आ रही थीं कुछ बुनियादी सच्चाइयां.

पहली बात, अनुमानों के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल की यात्रा के दौरान लाहौर में रुकने का फैसला आकस्मिक रूप से लिया था. वरिष्ठ अधिकारी वापस दिल्ली लौटने की तैयारी कर रहे थे. उनके आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा, जब प्रधानमंत्री के सहयोगियों ने उन्हें बताया कि प्रधानमंत्री पाकिस्तान में रुकने का ट्वीट करने जा रहे हैं-एक ऐसा ऐलान जो मोदी दुनिया को अचंभे में डालने के लिए खुद करना चाहते थे.

दूसरी बात, यह कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इस बात का ध्यान रखा कि रायविंड में भारतीय प्रतिनिधिमंडल से पहले से तय नहीं की गई वार्ता में उनके साथ विदेश सेवा या सुरक्षा मामलों का कोई अधिकारी न हो. शरीफ की नातिन की शादी के मौके पर उनका पूरा परिवार था. सेना, जिसके सरकार में प्रतिनिधि हाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने लेफ्टिनेंट जनरल नसीर खान जंजुआ हैं, को दावत नहीं दी गई थी. विदेश सचिव एजाज अहमद चौधरी क्रिसमस की छुट्टी के मौके पर लाहौर में गोल्फ खेल रहे थे. उनकी सेवा केवल मीडिया को बातचीत-मुलाकात की जानकारी देने के लिए ली गई. दूसरी तरफ मोदी के साथ कई वरिष्ठ अफसर थे. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी थे और विदेश सचिव एस. जयशंकर भी.

और, अंत में, इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज होने के लिए दोनों नेताओं के ये लीक से हटकर किए गए काम, धड़ाम से बिजली बनकर इन पर ही गिर गए. दोनों ही अपने काम के होने वाले संभावित प्रतिघात का अनुमान नहीं लगा सके. पठानकोट हमले की साजिश, ऐसे हमले की साजिश रचने वालों के विकल्पों में पहले से रही होगी और उन्होंने दोनों प्रधानमंत्रियों की बहुत योजनाबद्ध तो नहीं लेकिन इस साहसिक पहल को दो कदम पीछे ले जाने वाली चुनौती दी. अगर हमलावर पठानकोट वायुसेना अड्डे पर वायुसेना की किसी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने में या यहां रह रहे 3000 परिवारों में से किसी को नुकसान पहुंचाने में सफल रहे होते तो फिर यह मामला दक्षिण एशिया में संगीन उत्तेजना पैदा करने की वजह बन सकता था.

यह साफ है कि दूसरे लाहौर ‘शिखर सम्मेलन’ (पहला 1999 में नवाज शरीफ और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच हुआ था) के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं की गई थी. मोदी ने लगभग आवेग के क्षणों में अपनी लाहौर यात्रा को तेजी से आगे बढ़ा दिया था. तब उनके इस कदम को एक राजनेता का कदम कह कर, बेहद साहसी कह कर सिर पर बैठाया गया था. लेकिन, लाहौर की विजयी यात्रा से लौटने के महज एक हफ्ते के अंदर जब उन्हें पठानकोट हमले की सूचना मिली होगी, तो पुरानी बातें याद कर उनका चेहरा निश्चित ही लाल हुआ होगा.

अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के परिपक्व जानकारों के सामने यह बिलकुल साफ है कि मोदी, जो इतिहास रचने की जल्दबाजी में हैं, ने एक ऐसे रिश्ते में शार्ट कट का इस्तेमाल किया जिसने दुनिया को हैरान-परेशान किया हुआ है और जिसे आधुनिक समय में विश्व के सबसे पेचीदा रिश्तों में से एक माना जाता है. कूटनीति के जानकारों के लिए यह बात साफ है कि देशों और उनके लोगों के वास्ते वांछित नतीजों को हासिल करने के लिए शिखर बैठकों के लिए कभी-कभी दुष्कर, तनावपूर्ण और तकलीफदेह प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है.

14 साल पहले वाजपेयी और जनरल मुशर्रफ की शिखर वार्ता की असफलता पर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद अहमद कसूरी ने अपने उत्कृष्ट रूप से पढ़े जाने योग्य वृत्तांत ‘नीदर अ हॉक नार अ डव’ (पेंग्विन) में लिखा है, “मेरे विचार में, किसी शिखर वार्ता की पहले से अच्छी तैयारी नहीं करने की स्थिति में उससे किसी चमत्कारिक नतीजे की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. आगरा शिखर सम्मेलन की असफलता की शायद यही वजह थी.”

मोदी वैश्विक मामलों के नए खिलाड़ी हैं. उन्होंने अभी तक दुनिया में अपनी एक अलग छाप छोड़ी है. विश्व के नेता उनके कायल हुए हैं. उन्होंने भारत के हितों को दुनिया के स्तर पर मजबूती से आगे बढ़ाया है. नवाज शरीफ पुराने राजनीतिज्ञ हैं. उन्हें यह पता होना चाहिए था कि ‘कट्टर दुश्मन’ भारत के साथ बातचीत में सेना को दूर रखने का क्या नतीजा हो सकता है.

पठानकोट हमले की योजना में आईएसआई (पाकिस्तानी सेना पढ़ें) की भूमिका रोज-ब-रोज सामने आती जा रही है. आईएसआई के बारे में ऐसी सोच रखने वालों में आतंकवाद रोधी विशेषज्ञ और सीआईए के पूर्व विश्लेषक ब्रूस रिडेल शामिल हैं. यह शरीफ को खुला संकेत है कि सेना को विश्वास में लिए बिना किया गया कोई भी राजनैतिक दुस्साहस सहन नहीं किया जाएगा. और, अगर जरूरत पड़ी तो इसे ध्वस्त भी कर दिया जाएगा.

पाकिस्तानी सेना हमेशा से पाकिस्तान की राजनीति के केंद्र में रही है. इसने हमेशा देश की रक्षा और विदेश नीति में बड़ी भूमिका निभाई है. स्टीफन कोहेन ने अपनी किताब ‘द पाकिस्तान आर्मी’ (हिमालयन बुक्स) में लिखा है कि पाकिस्तानी सेना हमेशा से खुद को पाकिस्तान के विचार की विशेष अभिव्यक्ति मानती रही है. सेना पाकिस्तान में सत्ता तंत्र की लगाम लगातार अपने पास रखती रही है. इसीलिए वह विदेश नीति बनाने की प्रक्रिया में विदेश मामलों पर अपने पक्षपाती नजरिए को सीधे-सीधे शामिल करने के लिए असर डालती रही है. ”

और, इसका नतीजा पाकिस्तान, भारत और पूरी दुनिया के सामने है.

मान लिया जाए कि रणनीतिक राजनैतिक गलतियां दोनों तरफ से हुई हैं. ऐसे में सवाल है कि समाधान कहां से निकलेगा? क्या पाकिस्तान का असैनिक नेतृत्व न केवल भारत बल्कि दुनिया के सामने अपनी ताकत का इस्तेमाल करेगा? क्या वह आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद पर कार्रवाई करेगा जिस पर भारत ने पठानकोट हमले का आरोप लगाया है? क्या पाकिस्तानी सेना दबाव में आकर अपने आश्रित का बलिदान करेगी?

अगर पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञ स्टीफन कोहेन की पाकिस्तान और यहां की सेना के बारे में लिखी गईं बातों को पढ़ा जाए तो फिर उम्मीद कम ही नजर आती है. वह लिखते हैं, “पाकिस्तानी सेना वृहत्तर चीज का एक ऐसा हिस्सा है जिसका पूरी तरह से अस्तित्व नहीं है. अपनी इच्छा के बल और बंदूक की नोक पर जनरल पाकिस्तान की राजनीति पर नियंत्रण रखते हैं. ऐसा वे बिना किसी प्रशिक्षण, अनुभव और वैधता के करते हैं.”

कोहेन लिखते हैं, “और, जब अफसरों की भोजनशाला की लोक कथाएं राज्य की नीतियां बन जाती हैं, तो फिर तबाही दूर नहीं होती.”

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