प्रसंगवश

आडवाणी का ओम नमोः स्वाहा

भाजपा का मोदी मंत्र फेल हो गया. मोदी मंत्र को लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे ने ओम नमोः स्वाहा में परिणत कर दिया है. नरेन्द्र मोदी को गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. वास्तव में इस कदम से यह संकेत दिया गया था कि मोदी ही भविष्य में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे.

इस उपेक्षा को भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण आडवाणी ने सहज ढंग से नही लिया. अपने पत्र में तो उन्होंने साफ कर दिया है कि अब पार्टी बदल गयी है. जिसमें पुराने लोगों के लिये कोई गुंजाइश नही रह गयी है. इसलिये वे इस्तीफा दे रहे हैं.

अपने नमो स्वाहाः के मंत्र द्वारा आडवाणी ने संघ के फैसले को भी खुली चुनौती दी है. उस संघ को, जिसने उन्हें यहां तक पहुंचाया है. यह सत्य है कि संघ के वर्तमान नेतृत्व से आडवाणी निश्चित तौर पर वरिष्ठ हैं तथा पुराने पहलवान की तरह वे दंगल के सभी दाँव पेंच से अच्छी तरह वाकिफ हैं. वे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने को किसी भी हालात में तैयार नही हैं. न ही उन्हें अपनी उपेक्षा मंजूर है. इस उम्र में भी वे कुछ कर गुजरने का माद्दा रखते हैं.

हालांकि उनके इस्तीफे के साथ ही उन्हें मनाने की कोशिश भी भाजपा में तेज हो गयी है. वे मानेंगे की नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है. जो क्षति होनी थी वह तो हो ही चुकी है. एनडीए के संयोजक शरद यादव ने तो साफ शब्दों में कहा है कि उन्होंने अटल-आडवानी के साथ काम शुरु किया था. क्या इससे यह माना जाये कि नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व सबको स्वीकार्य नही है. 2002 के दंगों के कलंक से मोदी अभी तक उबर नही पाये हैं. रह रहकर दंगो का भूत उनके सामने आ जाता है.

पिछले कुछ समय से संघ इस खोज में था कि उसे अगले चुनाव में नैया पार कराने वाला अर्जुन चाहिये. उनकी खोज गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जाकर खत्म हो जाती है. इस कड़ी में भीष्म पितामह को नाराज करने में भी कोई कसर नही छोड़ा गया. नतीजा सामने है.

वास्तव में यदि इस नवउदारवादी युग में औद्योगिक घरानो का समर्थन चाहिये तो भाजपा को एक ऐसा नेतृत्व चाहिये था, जो उनकी भी आखों का तारा हो. मोदी ने भी भारत की इस कमजोरी को पहचान लिया है. भारत की औसत आयु 25 वर्ष है जो 2020 में 29 वर्ष हो जायेगी. अर्थात् युवा ही अगले कुछ चुनावों में सरकार को चुनने में मुख्य भूमिका निबाहने जा रहे हैं.

इस परिस्थिति में मोदी ने गोवा से राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया. राष्ट्रवादी नारा हमेशा से ही युवाओं को संगठित करने का एक जाँचा परखा नारा है. विश्व इतिहास इसकी गवाही देता है. वैसे मोदी के पास सिवाये राष्ट्रवाद के नारे के कांग्रेस से अलग कोई नीति भी नही है. जिस गुजरात का उदाहरण मोदी देते हैं, वहां उन्हीं आर्थिक नीतियों को अमली जामा पहनाया जा रहा है, जिसकी घोषणा कांग्रेस करती आई है.

राष्ट्रवाद एक ऐसा उन्माद है, जिसमें फँसकर युवा सब कुछ भूल जाते हैं. इस समय वे यह नही देखते कि क्या उन्हें नौकरी मिलेगी, नौकरी सुरक्षित रहेगी, महंगाई कैसे कम होगी आदि. लेकिन भाजपा के इस दिवा स्वप्न को आडवाणी के इस्तीफे ने पलीता लगा दिया है. कहां सत्ता में आने का ख्वाब देखा जा रहा था और कहां आडवाणी ने लाकर खड़ा कर दिया है. अब तो पार्टी को एकबद्ध रखना मुख्य एजेंडा बन गया है.

ऐसा लगता नहीं कि भाजपा अपने बूते पर सत्तारूढ़ हो सकती है. उसे अभी भी अपने सहयोगियों की जरूरत पड़ेगी. और तो और वर्तमान एनडीए का सत्ता में आना भी असंभव है. अभी और दूसरी पार्टियों का समर्थन उसे चाहिये. ऐसे में आडवाणी का विद्रोह उन्हें सत्ता से दूर ही ले जायेगा.

मोदी युवाओं के बीच जाकर भाषण देते हैं. जमकर तालियाँ बटोरते हैं. इसका कदापि भी अर्थ नही कि वे युवा हृदय के सम्राट बन गये हैं. तालियाँ बटोरना तथा उन्हे वोटो में तब्दील करना दो अलग-अलग बाते हैं. फिर भारत जैसे विशाल देश में आज किसी एक पार्टी का एकाधिकार नही रह गया है.

बंगाल में ममता या वाम, उड़ीसा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, तमिलनाडु में जयललिता तथा द्रमुक, बिहार में नीतीश कुमार, त्रिपुरा एवं केरल में सीपीएम जैसों को दरकिनार कर प्रधानमंत्री कोई नही बन सकता है. राष्ट्रवाद के नारे को परवान चढ़ने के पहले ही आडवाणी ने नमोः मंत्र का ओम नमो स्वाहाः कर दिया है.

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