प्रसंगवश

‘आम आदमी’ का सर्कुलर!

रायपुर | विशेष संवाददाता: जानकर हैरत हुआ कि ‘आम आदमी’ अपने खिलाफ उठते विरोध के स्वर को कुचल देना चाहता है. गुरुवार को सर्वोच्य न्यायालय ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के उस सर्कुलर पर रोक लगा दी है जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति मीडिया की खबर से असंतुष्ट है, तो वह दिल्ली के गृह विभाग से संपर्क कर सकता है, जो कि कानून विभाग से परामर्श करने के बाद संबंधित मीडिया समूह के खिलाफ मानहानि का मुकदमा कर सकता है.

इसमें कोई दो मत नहीं है कि मीडिया अब कोई आंदोलन नहीं रह गया है बल्कि वह घरानों की मिल्कियत बन गया है. इसमें भी कोई दो मत नहीं नहीं मीडिया अब आम आदमी की आवाज़ नहीं घरानों का हथियार बन गया है. इसमें सबसे ताज्जुब की बात है कि कभी इसी मीडिया पर आरोप लगाये जाते रहें हैं कि केजरीवाल दरअसल उनकी ही उपज है. यह सच भी है कि अन्ना के आंदोलन को मीडिया ने जिस तरह से सिर-आंखों पर बैठा लिया था उससे तरफदारी की बूं आ रही थी. अन्ना के उसी आंदोलन के चलते एनजीओ चलाने वाले अरविंद केजरीवाल देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ उठते स्वर के ब्रांड बन गये. जिसकी परिणाम स्वरूप उन्हें दूसरी बार भी दिल्ली की सत्ता मिली है.

देश में फैलाये जा रहे भ्रष्ट्राचार असल में घरानों के हित साधने के लिये ही हो रहे थे तथा आज भी हो रहें हैं. चाहे वह कोयला घोटाला हो या अन्य कोई दूसरा घोटाला हो. यह कैसा अंतर्विरोध है कि जिन घरानों ने देश में भ्रष्ट्राचार फैलाया था उन्हीं ने केजरीवाल की हवा को बढ़ावा दिया. इसे दो घरानों के समूह के दव्ंद के रूप में समझा जा सकता है. जिस घराने ने देश को हवा में उड़ना सिखाया उसे ही एविएशन इंडस्ट्रीज से बेदखल कर दिया गया था. ऐसे में केजरीवाल यदि किसी घराने के हित साधक के रूप में उदित हुये हैं, यह कहा जाये तो गलत न होगा.

चर्चा का विषय था केजरीवाल का सर्कुलर. आखिरकार केजरीवाल को अपने खिलाफ उठते आवाज़ से मानहानि होने का डर कैसे समा गया है. साफ़ है कि आज केजरीवाल अकेले रह गये हैं. उनके साथ न तो अन्ना के पुराने साथी रह गयें हैं और न ही प्रशांत भूषण जैसे वकील. और न ही योगेन्द्र यादव जैसा इंसान. अपनी इस स्थिति के लिये स्वंय अरविंद केजरीवाल उत्तरदायी हैं. जिन्होंने पार्टी के अंदर उठते असहमति के स्वर को बागी बताकर बाहर का रास्ता दिखा दिया. अब उन्हें हर उस आवाज़ से खतरा है जो उनके खिलाफ उठ रहा है.

इसका कारण इस तरह से समझा जा सकता है. ब्रम्हांड में सब कुछ गतिशील है. स्थिर कुछ भी नहीं है. यदि कोई अपने को स्थिर समझता है तो दरअसल वह दूसरे के तुलना में पीछे जा रहा होता है. ठीक उसी तरह से केजरीवाल की पार्टी अपने चरम पर पहुंच चुकी है जहां से केवल उसका नीचे गिरना बाकी रह रह गया है. केजरीवाल इसी से डरे हुये हैं. अगर केजरीवाल पार्टी के अंदर सामंजस्य तथा सहमति बनाये रखते तो उनकी राजनीति देश के अन्य भागों में भी फैल सकती थी तथा उनकी पार्टी आगे बढ़ सकती थी.

‘आप’ की इस राजनीतिक हालत के लिये कांग्रेस या भाजपा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. ‘आप’ में ‘मैं’ के रूप जो बदलाव आया उसी के परिणाम स्वरूप जनता में उसके प्रति फिर से गुस्सा है. जिस तरह से पहली बार जब ‘आप’ को नवउदारवाद के खिलाफ सशक्त विकल्प के रूप में देखा जा रहा था उसी समय उन्होंने इस्तीफा जैसे ऐतिहासिक भूल की थी. ठीक वैसे इस बार भी उन्होंने जनता के लिये काम करना छोड़कर अपने से असहमति रखने वाले को ठिकाने लगाने का काम शुरु कर दिया. जाहिर है कि जिसे बिजली के दाम आधा करने तथा मुप्त पानी देने के वादों के कारण सत्तारूढ़ किया गया हो वह अपनी स्थिति को मजबूत करने में मशगूल हो जाये तो उसे मानहानि क्या हानि होने का डर हमेशा बना रहेगा. केजरीवाल का सर्कुलर उसी डर को टाले रखने का तालिबानी उपाय मात्र है. इसके लिये बामियान की मूर्तिया टूटना लाजिमी है.

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