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बस्तर का सर्वाधिक बुरा दौर

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. रमन सिंह का तीसरे कार्यकाल का उत्तरार्ध लोकप्रियता की अब तक की जमा-पूंजी पर पानी फेरता नज़र आ रहा है. बीते एक-दो वर्षों में चंद घटनाएं ऐसी हुई हैं जो यह अहसास कराती हैं कि वे प्रसिद्धि के शिखर से नीचे उतर रहे हैं और अब एक थके हुए राजनेता हैं. ऐसे राजनेता जिसकी नौकरशाही पर पकड़ लगभग समाप्त हो चुकी है और उसकी मनमानी का खामियाजा जनता के साथ जनप्रतिनिधि के रूप में उन्हें भी भुगतना पड़ रहा है.

मसलन बस्तर में नक्सल मोर्चे पर राज्य शासन की वर्ष 2014 से जनवरी 2017 तक अगुवाई करते रहे घोर विवादास्पद आईजी पुलिस एस.आर.पी. कल्लूरी को जबरिया छुट्टी पर भेजना, आनन-फानन में डीआईजी सुंदरराज पी को बस्तर आईजी का चार्ज देना, तीन-चार दिन के भीतर ही छुट्टियां रद्द करके कल्लूरी का काम पर लौटना, उनकी पुलिस मुख्यालय में बिना किसी प्रभार के पदस्थापना करना, केन्द्र के निर्देश पर भ्रष्ट आईपीएस राजकुमार देवांगन की बर्खास्तगी, बस्तर में दर्जनों पुलिस मुठभेड़, नक्सली होने के शक में एक मासूम बच्चे से अनेक निर्दोष आदिवासियों की हत्याएं, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार और उनके घर जलाने जैसी कई घटनाओं के अलावा मानवाधिकारवादियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व पत्रकारों को प्रताडि़त करने, उनके खिलाफ केस दर्ज करने, उन्हें जेल में डालने तथा बस्तर छोडऩे का हुक्म सुनाने जैसे मामले आए दिन सुर्खियों में रहे.

बस्तर संभाग में घटित ये घटनाएं जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध राज्य सरकार की मौजूदा कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते रही है और इसका सीधा असर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की प्रतिष्ठा, ख्याति व उनकी साफ-सुथरी राजनीतिक छवि पर पड़ता दिखाई दे रहा है. क्या यह माना जा सकता है कि इन्हीं वजहों से उत्तरप्रदेश के प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव में भाजपा की प्रचारकों की सूची से रमन सिंह गायब हैं जबकि उन्हीं की तरह तीसरा कार्यकाल पूरा कर रहे म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान घोषित 40 प्रचारकों की सूची में स्थान पा गए हैं. यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या रमन सिंह तीसरा कार्यकाल पूरा कर पाएंगे? पार्टी की चौथी पारी के लिए राज्य विधानसभा का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा अथवा नहीं? क्या यह भाजपा की आंतरिक राजनीति में किसी बदलाव की सुगबुगाहट है?

|| क्या यह माना जा सकता है कि इन्हीं वजहों से उत्तरप्रदेश के प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव में भाजपा की प्रचारकों की सूची से रमन सिंह गायब हैं जबकि उन्हीं की तरह तीसरा कार्यकाल पूरा कर रहे म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान घोषित 40 प्रचारकों की सूची में स्थान पा गए हैं.||

देश के जिन राज्यों में भाजपा की सरकार है, रमन सिंह उनमें श्रेष्ठ माने जाते हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ को विकास के मामले में नई पहचान दी है. विशेषकर पिछड़े इलाकों में, आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सरकार के कामकाज को राष्ट्रव्यापी सराहना मिली है लेकिन हाल ही के वर्षों में बस्तर में नक्सल मोर्चे पर पुलिस की रणनीति लोकतांत्रिक दायरे से बाहर रही और जिसने मुख्यमंत्री को जनता के सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया जिसमें एक महत्वपूर्ण सवाल था एक सहृदय मुख्यमंत्री लंबे समय तक खामोशी के साथ बस्तर में पुलिस का तमाशा क्यों देखते रहे?

यकीनन रमन सिंह स्वयं तानाशाह नहीं हैं पर सरकार में तानाशाही को पनपने का मौका देते रहे हैं. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है आईपीएस एसआरपी कल्लूरी जिन्हें बस्तर में नक्सलियों से निपटने के नाम पर कुछ भी करने की छूट दे दी गई थी. इस ‘फ्री हैंड’ की वजह से, जिससे इंकार करने का पूरा अधिकार राज्य सरकार के पास है और वह करती भी रही है, बस्तर में ऐसा तांडव मचा कि इसकी गूंज देश-विदेश तक पहुंच गई.

छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या कोई आज की नहीं है, 40 वर्षों से राज्य इसका दंश झेल रहा है. इस दौरान सैकड़ों आदिवासी नक्सली हिंसा के शिकार हुए. इसके बावजूद पुलिस पर जनता का भरोसा कायम रहा हालांकि मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएं और दमनात्मक कार्रवाइयों की खबरें तब भी आती रहीं. लेकिन जब हिंसा का जवाब हिंसा से देने और विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने की नीति अपनाई गई तो जाहिर है पुलिस में तानाशाही को जड़ें जमाने का अवसर मिल गया और बस्तर में आईपीएस कल्लूरी इसके पहले शिखर पुरुष बने जिन्हें अंतत: राज्य शासन को वहां से हटाना पड़ा.

बस्तर में कल्लूरी के नेतृत्व में जो कारनामे हुए उनके सकारात्मक-नकारात्मक दोनों पहलू हैं. सकारात्मकता यह रही कि पुलिस व अर्द्ध सैनिक बलों के दबाव की वजह से माओवादी बैकफुट पर आ गए. कई बड़े नक्सली कमांडर मारे गए या छत्तीसगढ़ से पलायन करने बाध्य हुए. नक्सली वारदातों की कमी आई और सैकड़ों नक्सली समर्थकों, माओवादियों और उनके कतिपय बड़े सरगनाओं ने पुलिस के आगे हथियार डाल दिए. इससे पुलिस का मनोबल बढ़ा लेकिन इसके एवज में इतना जबरदस्त नुकसान हुआ कि बस्तर में लोकतंत्र की जड़ें हिल गईं. यह भीषण नकारात्मकता रही.

फर्जी मुठभेड़ों में दर्जनों आदिवासी मारे गए, उनके घर जला दिए गए, महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और इस सच को उजागर करने की कोशिश करने वालों पर पुलिस का कहर टूट पड़ा. मानवाधिकारवादी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पत्रकारों पर इतना जुल्म इसके पूर्व कभी नहीं ढाया गया था. उन्हें बस्तर छोडऩे का हुक्म नहीं सुनाया गया था, उन्हें बस्तर आने से रोका नहीं गया था. हद तो तब हो गई जब माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप में, बस्तर का माहौल खराब करने के आरोप में, नक्सलियों को नैतिक समर्थन देने के आरोप में उनके खिलाफ समानांतर संगठन ‘अग्नि’ को खड़ा किया गया जो अघोषित रूप से पुलिस के कार्यों को अंजाम देता रहा है.

लगभग समूचे बस्तर में पुलिस के जवानों ने माओवादिओं को समर्थन देने के आरोप में सामाजिक कार्यकर्ताओं के पुतले जलाए, प्रदर्शन किया. ऐसी घटनाएं नक्सली हिंसाग्रस्त बस्तर में कभी नहीं देखी गई थी. सामाजिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकारवादियों के खिलाफ चलाए गए इस सुविचारित अभियान का व्यापक विरोध हुआ. और इस असफलता की छींटे जाहिर है, अंतत: मुख्यमंत्री रमन सिंह पर पड़ रहे हैं. हालांकि सरकार का अभी भी दावा है कि नक्सल समस्या दो-तीन वर्षों के भीतर समाप्त हो जाएगी.

याद करें वर्ष 2007 में ऐसी ही एक कोशिश डॉ. विनायक सेन को जनसुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार करके जेल भेजने के रूप में हुई थी. उन पर माओवादी समर्थक होने एवं उनके लिए कार्य करने का आरोप था. यानी पुलिस के अनुसार वे सफेदपोश माओवादी थे. सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय डॉ. सेन की अंतरराष्ट्रीय ख्याति थी. उनकी गिरफ्तारी की गूंज देश की सीमाएं पार कर गईं. भारत सहित विश्वभर के प्रखर बुद्धिजीवियों एवं कुछ नोबल पुरस्कार विजेताओं ने राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मंचों से उनकी गिरफ्तारी की निंदा की. हाई कोर्ट से सजा प्राप्त डॉ. सेन लंबे समय तक जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर छूटे. उनका प्रकरण अभी खत्म नहीं हुआ है.

दस वर्ष पूर्व घटित इस चर्चित मामले से कहीं अधिक गंभीर मामले पिछले दो-तीन वर्षों के भीतर उन लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए जिन्होंने नक्सलवाद खत्म करने के सरकार के तथाकथित अभियान के दौरान पुलिस ज्यादतियों एवं उसकी दमनात्मक कार्रवाइयों का विरोध किया. बस्तर में स्थिति यह है कि पुलिस की आलोचना करने का अर्थ है माओवादियों का समर्थक होना, शांति भंग करना, पुलिस की कार्रवाई में बाधा डालना और लोगों को भड़काना. इस सबके बीच सर्वाधिक दयनीय स्थिति उन मीडियाकर्मियों की हैं जो वहां तलवार की धार पर काम कर रहे हैं और सच को सच कहने की हिम्मत जुटा रहे हैं.

पिछली चंद घटनाओं को लें. राज्य सरकार को पहला धक्का तब लगा जब सुकमा जिले के ताड़मेटला, तिम्मापुर व मोरपल्ली गांव में 11 से 16 मार्च 2011 के दौरान घटित आगजनी, बलात्कार व हत्या के मामले में सीबीआई ने सुरक्षा बलों को जिम्मेदार ठहराया. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सीबीआई को यह मामला सौंपा गया था जिसकी रिपोर्ट 2016 में पेश की गई. इस घटना में इन गांवों के 252 झोपडिय़ों को जलाया गया, आदिवासियों से मारपीट की गई, 3 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और तीन की हत्या कर दी गई. घटना के बाद कल्लूरी इसमें फोर्स का हाथ होने से इंकार करते रहे लेकिन सीबीआई की रिपोर्ट में उनका झूठ सामने आ गया.

नक्सल मोर्चे पर अप्रतिम सफलता का दावा करने वाली राज्य सरकार पर आफत तब और टूट पड़ी जब 7 जनवरी 2017 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उसे परोक्ष रूप से जिम्मेदार ठहराते हुए नोटिस जारी किया. इस नोटिस के बाद मानवाधिकार पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के सुर बदल गए वरना वे हिंसा की प्राय: प्रत्येक घटना के बाद मानवाधिकारवादियों के हस्तक्षेप पर तंज कसते थे और उनसे अपील करते थे कि उन्हें बस्तर में आकर वस्तुस्थिति का जायजा लेना चाहिए.

बहरहाल पिछले डेढ़-दो वर्षों में कल्लूरी की कार्यप्रणाली पर हथौड़े चलने के बावजूद राज्य सरकार आश्वस्त थी कि जिस तरह उन्होंने सरगुजा से नक्सलवाद को खत्म किया उसी तरह वे बस्तर से भी नक्सलियों का सफाया कर देंगे. फिर कल्लूरी ने 1 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रायपुर विमानतल पर अगुवाई करते हुए उनसे कहा था कि वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व बस्तर संभाग नक्सलमुक्त हो जाएगा. राजनीतिक दृष्टि से यह सरकार को गद्गद् करने वाली बात थी. तमाम विरोध के बावजूद सरकार बस्तर में पुलिस के अभियान से वैसे भी संतुष्ट थी लिहाजा कल्लूरी को अभयदान मिला हुआ था लेकिन बेला भाटिया प्रकरण ने सरकार को हिला दिया.

जगदलपुर में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता बेला को 23 जनवरी 2017 को 24 घंटे के अंदर बस्तर छोडऩे की धमकी दी गई. बस इस घटना के बाद कल्लूरी की उल्टी गिनती शुरू हो गई. इस घटना का देशव्यापी विरोध हुआ. घटना की गंभीरता का अहसास होते ही राज्य सरकार के मुख्य सचिव, डीजीपी और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को जगदलपुर जाकर बेला भाटिया से मिलना पड़ा. सरकार ने उन्हें पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया. 31 जनवरी 2017 को देश के 125 प्रख्यात पत्रकारों-संपादकों, अर्थशास्त्रियों, फिल्मकारों एवं सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकीलों ने एक संयुक्त बयान जारी करके बस्तर में कानून के राज की मांग की.

बस्तर किस कदर गर्म था इसकी झलक उनकी इस अपील से मिलती है जिसमें कहा गया था कि दबंगई पर उतारू कानून व मानवाधिकार का सम्मान न करने वाले किसी भी समूह को राज्य की ओर से समर्थन न दिया जाए तथा सुरक्षा बल व राज्य की अन्य संस्थाएं कानून व संविधान के दायरे में रहकर काम करें. इशारा स्पष्टत: कल्लूरी, उनकी पुलिस व उनके द्वारा घोषित संगठन ‘अग्नि’ की ओर था. अपील जारी करने वाली इस विज्ञप्ति पर हस्ताक्षर करने वाले सभी अपने-अपने क्षेत्र में प्रख्यात हैं जैसे- अरुंधती राय, इंदिरा जयसिंह, जावेद अख्तर, मृणाल पांडे, नंदिता दास, रामचन्द्र गुहा, शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर, सुनीता नारायण आदि.

मुख्यमंत्री रमन सिंह चिंतित है. पिछले कार्यकाल में इतनी निर्मम स्थितियों का उन्हें कभी सामना नहीं करना पड़ा था. सवाल अगले चुनाव का है, भाजपा के निरंतर चौथे कार्यकाल का है. बस्तर की घटनाओं पर देशव्यापी तीखी प्रतिक्रिया से चिंता स्वाभाविक है. यह प्रतिक्रियाओं का ही परिणाम है कि उन्हें बस्तर में मानवाधिकार संरक्षण के लिए राज्य स्तरीय एवं जिलेवार समितियां गठित करने का फैसला लेना पड़ा. लेकिन सवाल किसी की जीत, किसकी हार का नहीं है.

सवाल है बस्तर में आदिवासियों की सुरक्षा का, उनके अधिकारों के संरक्षण का, उनके स्वास्थ्य का, शिक्षा का, उनके जीवन को सुगम बनाने का, उन्हें हर तरह के शोषण से मुक्त करने का और जीवन निर्वाह के लिए यथोचित बंदोबस्त का यानी सर्वांगीण विकास व मुख्यधारा से जोडऩे का और जागरुकता का. यह भी देखना होगा कि बस्तर में कोई दूसरा कल्लूरी पैदा न किया जाए और जहां तक मानवाधिकार की बात है, जिंदाबाद कहने का हक सभी को है पर इसके लिए वातावरण बनाने की जिम्मेदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकारवादियों की भी है, केवल सरकार की नहीं.

* लेखक पायनियर रायपुर के सलाहकार संपादक हैं

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