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गुड़िया के यक्ष प्रश्न

जे के कर

दिल्ली की गुड़िया जब बड़ी हो जायेगी तो सारे देश से सवाल पूछेगी. दामिनी तो सवाल पूछने के लिये रही नहीं बची वर्ना वह भी हमसे पूछती- बताओ मेरे साथ ऐसा सलूक क्यों किया गया. क्या मैं इसी दरिंदगी को झेलने के लिये इस दुनिया में आई थी? क्या मेरे शरीर का उपभोग करने के अलावा दरिंदों का और कोई काम नहीं था? क्या नारी केवल उपभोग की वस्तु होकर रह गयी है? जाने ऐसे और कितने-कितने सवाल…! ये सवाल आज लोगों के बीच भी बार-बार उठ रहे हैं. पांच साल की गुड़िया ने भड़काउ वस्त्र नहीं पहने थे. उसके हाव भाव अश्लील हो ही नहीं सकते. वह भारतीय संस्कृति को नष्ट करने पर भी तुली हुई नहीं थी. फिर ऐसा क्या था, जिसने गुड़िया के साथ ऐसा हैवानियत भरा कृत्य करने के लिये मनोज और प्रदीप को बाध्य किया ?

सवाल बहुत सीधा है लेकिन इसके पेंच बहुत मुश्किल से भरे हुये हैं. इसका एक बड़ा पेंच है बाजार. आज दुनिया भर में बाज़ार नियंता बन गया है बाकी सब गौण हो गये हैं. उत्पादित माल को बेचने के लिये तमाम जुगतें भिड़ाई जाती हैं. और उत्पादन भी ऐसा, जिसे आप अति उत्पादन कह सकते हैं. आवश्यकता से अधिक उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध हैं. इसी कारण अपने-अपने उत्पांदो को बेच लेने की होड़ लगी हुई है. किसी भी माल को बेचने के लिये विज्ञापन की आवश्यकता होती है. यह एक बड़ा बिन्दु है, जो इन समस्याओं की जड़ में है.

नैगम घरानों द्वारा नारी के देह का विज्ञापन द्वारा प्रदर्शन कर उपभोक्ताओं को उत्तेजित कर अपने उत्पाद को खपाया जाता है. पुरुषों की पाश्विक मनोवृत्ति को सुसुप्तावस्था से जागृत करना वर्तमान बाज़ार का सबसे बड़ा ध्येय बन गया है. विज्ञापन में दिखाया जाता है कि डीयो लगाने से लड़कियॉ खिंची चली आती है. नये कार या बाईक में बैठने के लिये लड़कियां बेताब हो जाती हैं वास्तव में जब ऐसा होता नहीं है तभी कुंठित पुरुष नारी देह पर हमला कर अपने पौरुष का प्रदर्शन करता है.

प्रकृति ने पुरुष को पौरुष की शक्ति तथा नारी को मातृत्व का वरदान दिया है. बिना मातृत्व के वरदान के पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. उस नारी को चाहे वह पांच वर्ष की हो या पचास वर्ष की, यदि केवल भोग्या समझ लिया जाए तो यह एक अप्राकृतिक मानसिकता कहलायेगी.

1991 के बाद से भारत एक नई राह पर चल पड़ा है. नई आर्थिक नीति, खुलापन तथा उदारता इसकी विषेशता है. यह विदेशी उत्पादों को भारत में बेरोक-टोक आने तथा इससे प्राप्त मुनाफे को आसानी से ले जाने की अनुमति देता है. राजनैतिक अर्थशास्त्र के नजरिये से यदि इसे देखें तो नई अर्थव्यवस्था का प्रभाव समाज एवं राजनीति पर पड़ना लाजिमी है. और यह प्रभाव अब देखने को आ रहा है.

उपयोग के बजाये उपभोग को ध्येय बना दिया गया है. हमें वह सब कुछ खरीदने के लिये ललचाया जा रहा है, जो हमारी आवश्यकता का विषय नहीं है. हम उन्हें खरीद भी रहे हैं. अब इस दबाव और प्रलोभन को अर्थशास्त्र की राजनीति करने वाले खुलेपन की नीति कहते हैं.

इस खुलेपन की नीतियों ने समाज में उन्नमुक्त्ता बढ़ा दी है. इससे व्याभिचार बढ़ा है. भोग-विलास बढ़ा है. नौकरी की कमी, महंगाई तथा अनिश्चत्ता ने कुंठा को बढ़ाया है. जिसमें यौन कुंठाए भी शामिल हैं. यौन कुंठाए तो इतनी बढ़ गयी हैं कि यदि हर बलात्कार की खबर को समाचार पत्रों में छापा जाने लगे तो अन्य समाचारों के लिये जगह कम पड़ जायेगी.

संकट ये है कि कांग्रेस नीत केन्द्र सरकार, प्रमुख विपक्षी दल भाजपा एवं करीब-करीब सभी दल इस नई आर्थिक नीति के समक्ष नतमस्तक हैं. इन नीतियों पर जब तक लगाम नहीं लगाया जाता, उसे जब तक नियंत्रण में नहीं रखा जाता तब तक ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकेगा. गुड़िया के यक्ष प्रश्न का यही जवाब है कि अर्थनीति में बदलाव लाकर ही समाज को बदला जा सकता है. पत्तियों के बीच बैठ कर कुछ टहनियों को काटने से पेड़ पर फर्क नहीं पड़ता. पेड़ को काटना हो तो उसकी जड़ों का काटना होगा.

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