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ज़मीन हड़पने का चीनी हथकंडा

देविंदर शर्मा
चीन के हालिया दौरे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीन को भारत में स्पेशल इकोनामिक जोन और औद्योगिक पार्क लगाने का न्यौता दिया. वह भारत में विनिर्माण उत्पादन बढ़ाने के लिए बीजिंग से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की उम्मीद कर रहे हैं, जो पहले ही चीन से सस्ते आयात में उछाल के कारण सुस्ती का शिकार है.

कुछ साल पहले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने ओमान की यात्रा के दौरान वहां की कंपनियों को भारत में खेती करने और उपज का निर्यात करने का आमंत्रण दिया था. ऐसे समय जब खाद्य पदाथरें के दाम आसमान छू रहे हैं, घरेलू उत्पादन को सीमित करने का विचार चिंताजनक है, किंतु अहलूवालिया को जैसे इसकी कोई परवाह नहीं है.

अगर आपने इन खबरों पर ध्यान नहीं दिया तो आपके लिए एक और झटका है. इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रिया और थाईलैंड की विदेशी कंपनियां भारत में कृषि भूमि की खरीद के 36 सौदे कर रही हैं. ये सौदे गुजरात, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में किए गए हैं. इनमें से सात करार पूरे हो चुके हैं. इसके लिए 13,105 हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण की अनुमति दे दी गई है. यह जानकारी लैंड मैट्रिक्स नामक वेबसाइट पर विस्तार से दी गई है.

सरकार की इन योजनाओं से साफ हो जाता है कि भारत की पहले से सिकुड़ती जा रही कृषि भूमि विदेशी कंपनियों के कब्जे में जा रही है. अब तक आप यही पढ़ते आ रहे थे कि भारतीय कंपनियां अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका में जमीन खरीद रही हैं.

2008 के बाद पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर जमीन खरीदने के कुल 848 सौदे हुए हैं. इन सौदों में 80 भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं, जिन्होंने खाद्यान्न, गन्ना, तिलहन, चाय और फुलवारी की परियोजनाओं में निवेश किया है. एक खबर के अनुसार भारत ने विदेशों में दिल्ली के क्षेत्रफल का करीब नौ गुनी जमीन खरीद ली है. क्या यह दिलचस्प नहीं है?

एक तरफ भारत की कंपनियां विदेशों में जमीन खरीद रही हैं, जबकि विदेशी कंपनियां भारत में. हर सेकेंड एक फुटबाल के मैदान के बराबर यानी करीब 0.72 हेक्टेयर जमीन विकासशील देशों में अधिग्रहीत की जा रही है. इन सौदों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां, बड़े औद्योगिक घराने, हेज फंड कंपनियां, जोखिम उठाने वाले पूंजीपति ही नहीं, विश्वविद्यालय तक शामिल हैं. इनमें से 60 प्रतिशत सौदे ऐसे देशों में हो रहे हैं, जो भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं. यह सहज ही समझा जा सकता है कि आने वाले समय में इन देशों की क्या स्थिति होगी.

यदि ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश में अधिकांश लोग भूमिहीन हो जाएंगे. अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस ने इसे उपनिवेशवाद का नया स्वरूप बताया है, जबकि मुख्यधारा के अर्थशास्त्री इसे आर्थिक विकास का मॉडल बताते हैं. हालांकि यह तथ्य अपनी जगह सही है कि भूमि हड़पना पिछले कुछ सालों से प्रमुख निवेश बन गया है. हम इस घटनाक्रम को लेकर बेपरवाह हो सकते हैं और सोच सकते हैं कि इससे कम से कम हमारी जड़ें तो नहीं उखड़ेंगी. ऐसा सोचना भारी भूल है.

भूमि गिद्ध पूरी दुनिया के चप्पे-चप्पे को टटोल रहे हैं और उन्हें जो भी जमीन मिलती है वे उसे खरीद लेते हैं. मेरे विचार से यह भयावह घटनाक्रम है. यह मानवाधिकारों के लिए चिंताजनक स्थिति है और वैश्रि्वक खाद्य सुरक्षा पर इसका घातक असर पड़ेगा. दूसरे शब्दों में, यह घटनाक्रम आने वाले वषरें में लोगों को जबरदस्त विद्रोह के लिए तैयार कर रहा है.

जरा कल्पना करें कि आप जहां रह रहे हैं वह इलाका विदेशी कंपनी द्वारा खरीदी गई जमीन से घिरा है, जिसकी कंटीले तारों से घेराबंदी की गई है. कल्पना करें कि आपके पड़ोस में उस देश का झंडा लहरा रहा है, जिस देश की कंपनी ने वह जमीन खरीदी है. हो सकता है अनेक झंडे लहरा रहे हों. कृपया इस पर हंसे नहीं. वास्तव में ऐसा हो रहा है. ट्रांस-अटलांटिक व्यापार वार्ता में अमेरिका और यूरोपीय संघ यह मांग कर रहे हैं कि उनकी कंपनियों को राष्ट्रीय राज्य का दर्जा दिया जाए. अगर ऐसा होता है और यह होने की पूरी आशंका है तो आदिवासियों व स्थानीय नागरिकों को ही नहीं, बड़े उद्योगपतियों को इन जगहों पर जाने पर गार्ड ऑफ ऑनर देना पड़ सकता है.

धीरे-धीरे हम खुद को हर तरफ अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरा पाएंगे. भूमि गिद्धों ने अब अपनी नजर भारत पर गड़ा दी है. जमीन हथियाने की तैयारियां पूरी हो गई हैं. नए भूमि अधिग्रहण कानून से कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण प्रक्त्रिया आसान हो गई है. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के शब्दों में, ‘हमें 20 साल बाद भूमि अधिग्रहण कानून की जरूरत नहीं पड़ेगी.’ यह बिल्कुल सच है. तब तक देश में अधिग्रहण के लिए भूमि बचेगी ही नहीं.

संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जमीन हड़पने के इस अभियान पर चुप्पी साधे हैं. इन्होंने भूमि हड़पने वालों को प्रस्तावित आचार संहिता के दायरे में लाने के लिए जरूर कहा है. 2011 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के मुंह से जरूर चेतावनी सुनने को मिली.

उन्होंने कहा कि शहरीकरण और औद्योगीकरण की लागत घटाने के लिए किसानों के भूमि अधिकारों की बलि नहीं दी जा सकती. उन्होंने कहा कि किसानों के पास बुनियादी सुरक्षा उपायों के तौर पर भूमि संविदा, भूमि प्रयोग और सामूहिक आय वितरण जैसे अधिकार हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे शहरों में चले गए हैं या फिर गांवों में बसे हैं. कोई भी किसानों को उनके अधिकारों से विमुख करने की ताकत नहीं रखता.

चीनी नेतृत्व को यह समझ तब आई जब पिछले कुछ वषरें के भीतर वहां किसान विद्रोह की हजारों घटनाएं हो गईं. एक अनुमान के अनुसार पिछले कुछ वषरें में चीन में भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर रोजाना करीब 250 हिंसक प्रदर्शन होते थे. विडंबना देखिए, भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर हिंसक संघर्ष झेल रहा चीन विश्व में जमीन हड़पने का सबसे बड़ा खिलाड़ी है. यह पहले ही विदेशों में 90 लाख एकड़ जमीन खरीद चुका है. असल में, इन देशों में कामगारों के तौर पर चीन अपने ही नागरिकों को भेज रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि इन सौदों से जो काम के अवसर पैदा होते हैं उनका लाभ भी स्थानीय जनता को नहीं मिल पा रहा है.

जमीन हथियाने की नई पहल के सामाजिक-आर्थिक पहलू ही नहीं हैं, बल्कि यह देर-सबेर राजनीतिक टकराव को भी जन्म देने वाला है. विकासशील देशों में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटने से पहले ही सचेत हो जाना चाहिए. विप्लव के कारण आर्थिक विकास की नाव पलट भी सकती है. इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है. इसके पहले कि जमीन के मामले में हालात हमारे हाथ से फिसल जाएं, नीति नियंताओं को खतरे के प्रति चेत जाना चाहिए.

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