चुनाव विशेषछत्तीसगढ़

आइए, यज्ञ की समिधा बनें !

कनक तिवारी
19 नवम्बर को 36 गढ़ में 72 विधानसभा सीटों का मतदान है. लोकतंत्र में मतदाता को पांच वर्षों के लिए चंद मिनटों का ही मौका मिलता है कि अपने लिए जनप्रतिनिधि चुने. उसे मालूम है कि हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते, शहर, गली, गांव पसीना बहाते सुखाते विजयी जनप्रतिनिधि उसके मालिक ही बन जाएंगे. उनका सलूक जनता के साथ पहले दिन से ही बदल जाएगा. वे अपने दरवाजे आए नागरिक को रियाया बल्कि भिखारी तक समझते रहेंगे. उनकी भाषा और संबोधन में सरकारी तामझाम में नशा बनकर गुरूर छा जाएगा.

वे जनता से टैक्स के रूप में वसूले गए धन को निजी मिल्कियत समझकर दानवीर मुद्रा में अपने समर्थकों की सलाह पर इस तरह आवंटित करेंगे मानो किसी का परलोक सुधार रहे हों. वे इने गिने सियासी चमचों से घिरे रहेंगे. उन्हें ही जनता से संवाद करने की एजेंसी याने दलाली की संस्था के रूप में विकसित करेंगे.

लगभग शत प्रतिशत नेताओं ने उनके द्वारा धारित संपत्तियों का ब्यौरा देने में झूठे शपथ पत्र दिए होंगे. दिन प्रतिदिन होने वाले चुनाव खर्च के उनके ब्यौरे झूठ का पुलिंदा होंगे. तमाम ईमानदारी, कड़ाई और निष्कपटता के बावजूद चुनाव आयोग भी उम्मीदवारों से मिली सूचनाओं और जानकारियों को सही मानता रहेगा. आयोग हर मुमकिन कोशिश कर रहा है कि चुनाव में रुपए, शराब कंबल और बाकी वस्तुएं मतदाताओं को घूस के रूप में नहीं बांटी जाएं. फिर भी वे खूब बंट रही हैं.

पुलिस के कनिष्ठ अधिकारी घूस, बेईमानी और तस्करी वगैरह को रोकने की ट्रेनिंग नहीं पाने के कारण इस वितरण व्यवस्था के समर्थक बने रहते हैं. कई चेहरे लगातार पुलिस को जुआघर, क्लब, शराब के अड्डे और सट्टा बाजारी वगैरह के सिलसिले में घूस देते ही रहते हैं. उन विश्वसनीय दानदाताओं पर पुलिस के अधिकारी केवल चुनाव आयोग के कहने से कार्रवाई नहीं कर सकते.

चुनाव आयोग आचरण संहिता लगे रहने के दौरान किसी भी अधिकारी का स्थानांतरण ही तो कर सकता है. उस पर लगे आरोपों की जांच चुनाव आयोग नहीं करता. वह उन्हें उन्हीं सरकारी अधिकारियों के जिम्मे छोड़ देता है जिन वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले मंत्री करते हैं. इस तरह यह गोरख धंधा चलता रहता है. जनता को समझाया जाता है कि बर्फ की सिल्ली ही चट्टान है. उपलों की दीवार ही लोहे की दीवार है.

कान पक गए हैं सुनते सुनते कि हर नेता चोर है. डाकू है. गिरहकट है. जो देश के प्रधानमंत्री बनने चले हैं उनकी बदज़ुबानी का तो थिसॉरस बनना चाहिए. जो मौजूदा प्रधानमंत्री हैं उनकी कमजोर आवाज़ जनता के कानों में घुसती ही नहीं है. लोकप्रिय युवक नेता सलाहकारों के कारण अलोकप्रिय बनाए जा रहे हैं.

मध्यप्रदेश को गंवाने के बाद दिग्विजयी नेता पूरे भारत में पार्टी की पराजय का कारण बनने को बेताब हैं. हर पार्टी के नेता को अपने अगुआ के लिए भारत रत्न पाने की कुलबुलाहट है. केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर कोयला, लोहा और अन्य खनिजों का आवंटन कर रही हैं. एक यदि मना कर दे तो दूसरा नहीं कर सकता. फिर भी दोनों एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं कि भ्रष्टाचार मेरी वजह से नहीं उसकी वजह से हो रहा है.

दोनों कानून में बदलाव नहीं चाहते. मिली जुली कुश्ती, मैच फिक्सिंग और रेफरी की बेईमानी की सीटी को ही तो चुनाव का मैच कहते हैं. कोई जांच मुकाम पर नहीं पहुंचती. टू. जी. स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी, कोलगेट, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, झलियामारी बालिका आश्रम, जीरम घाटी, मालिक मकबूजा, बाल्को चिमनी हादसा वगैरह कभी भी अंजाम तक नहीं पहुंचेंगे. कभी कभार छोटे मोटे अधिकारी वरिष्ठों को खुश नहीं कर पाने के कारण उसी तरह पकड़ लिए जाते हैं जैसे अंधेरे में ताली बजा देने से एकाध मच्छर मर जाता है.

चुनाव आयोग सुर्खियां बटोरने का बरसाती मौसम है. हर बड़े नेता को नोटिस थमाया जा रहा है कि उसने आचरण संहिता का उल्लंघन किया है. उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती. छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट से भी सैकड़ों व्यक्तियों को अवमानना के नोटिस मिलते रहते हैं. सज़ा करीब करीब किसी को नहीं होती. चुनाव आयोग या तो फैसला नहीं करता या चेतावनी देकर छोड़ देता है. आयोग को कड़े फैसले करने का वैधानिक अधिकार भी नहीं है.

घर के बाहरी बरामदे में बैठे बूढ़े दादाजी नौजवान नाती को शराब पीकर धींगामस्ती करते देख भी लेते हैं तो बेचारे कुड़कुड़ाने के अलावा क्या कर पाते हैं. फिर भी चुनाव आयोग ने रोकथाम की अपनी पूरी क्षमता का प्रशंसनीय इस्तेमाल किया है. पिछले मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने यह संवैधानिक ताकत पहली बार दिखाई थी.

मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त संपत ने इस परंपरा को मजबूत इरादों के साथ कायम रखा है. चुनाव आयोग, लोकायुक्त, सतर्कता आयोग, पुलिस, इनकम टैक्स विभाग और कैग जैसी संस्थाएं संविधान की मंशाओंे के अनुसार पूरी निष्कपटता से मुस्तैद होकर कार्य करने लगें तो राजनीतिज्ञों की भेड़ वाली खाल ओढ़कर जो गुंडे मवाली भेड़िए देश की जनता को शिकार समझकर खा रहे हैं, उनसे बहुत कुछ निजात मिल सकती है.

छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या देश में अव्वल नंबर पर आ गई है. दोनों बड़ी पार्टियों ने अपने घोषणा पत्रों में इस समस्या के फलने फूलने के कारण नहीं बताए हैं. समस्या को हल करने के उपाय भी उनके पास नहीं हैं. दोनो पार्टियां आग लगाए जमालो दूर खड़ी के मुहावरे का आचरण कर रही हैं. दोनों को पता है कि जनता को आसानी से गुमराह किया जा सकता है.

छत्तीसगढ़ के बेरोजगार नौजवानों की आर्थिक बेहतरी के लिए कोई ठोस कार्य योजना नहीं बताई गई है. जनता को दो रुपए किलो चावल, एक रुपए किलो चावल या मुफ्त चावल या कर्ज़ माफी जैसे प्रलोभनों के ज़रिए बरगलाया जा रहा है. जनता मुफलिस या भिखारी नहीं है. होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक नागरिक की कमाने की क्षमता का विकास हो. वह माले मुफ्त दिले बेरहम के मुहावरे की तोतारटंत क्यों करे. पसीना बहाकर रोजी रोटी कमाने ही लोकतंत्र के थर्मामीटर का पारा होता है.

बराएनाम दरों पर चावल, गेहूं, दालें, नमक आदि हर माह उठा लेने के बाद निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों की स्त्रियां अपने पतियों को सरकारों द्वारा धर्म प्रचार की तर्ज़ पर शराबखोरी बढ़ाते भोग रही हैं. यह नीति सभी पार्टियों की है और पूरे देश में है. यदि जनता अंततः नशे में गाफिल हो जाए तो वह भ्रष्ट राजनेताओं से लड़ने की कूबत अपने में पैदा ही नहीं कर सकती. भारत में इसीलिए जनक्रांति होने का कोई सिलसिला या प्रयोजन नहीं है.

कहीं कहीं इक्का दुक्का ईमानदार प्रतिनिधि जन आंदोलन अवश्य कर रहे हैं. समाज में कई ऐसे विचारक, कार्यकर्ता और संस्थाएं हैं जो राजनीतिज्ञों के मुकाबले ईमानदारी से कार्य कर रहे हैं. पूरा प्रदेश भ्रष्ट तत्वों की जमघट नहीं है. जगह जगह गनियारी जैसे जनभागीदारी के अस्पताल, प्रोफेसर खेड़ा जैसे आदिवासी सेवक, बुजुर्गों की देखभाल, छोटे बच्चों के लिए स्कूल वगैरह के छिटपुट प्रयत्न लोकतंत्र के अहसास को बचा रहे हैं. कुछ पत्रकार भी हैं जो दिन प्रतिदिन के आधार पर लाग लपेट के बिना सभी भ्रष्टों की खोज खबर ले रहे हैं. लाखों नागरिक हैं जो बुनियादी तौर पर अच्छे इंसान, मददगार और करुणामय हैं.

वे छत्तीसगढ़ और देश को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं का ईमानदारी से निर्वाह कर रहे हैं. उन पर इन्कम टैक्स विभाग गलत छापे डालता है. पुलिस थानों में उन्हें जलील किया बल्कि पीटा भी जाता है. नेता और मंत्री अपने जनदर्शन में उनकी फरियाद को रद्दी की टोकरी में फेंक देते हैं. बाज़ार की महंगाई उनकी कमर तोड़ रही है. उनके परिजनों को अस्पतालों में इलाज के बदले मौत मिलती है. उनके बच्चों का दाखिला अच्छे स्कूल में फीस नहीं होने के कारण नहीं हो पाता. वे फिर भी सब कुछ सहते देश के भविष्य में उम्मीद रखते हैं.

वे खरीदकर अखबार पढ़ते हैं. दुख सुख में पड़ोसियों के साथ रहते हैं. उन्हें मालूम है कि चुनावों में जो जीतेगा वही उम्मीदवार सिकंदर होगा. मतदाता तो लगातार हारेगा. इसके बाद भी वे उस चीटी की तरह हैं जो दीवार पर चढ़ते वक्त बार बार फिसलकर गिर जाती है. फिर भी अपने मुंह में शक्कर का लगभग नहीं दिखता छोटा सा कण लेकर चढ़ती रहती है. वह आने वाले खराब बरसाती मौसम के लिए पहले से जतन कर कुछ बचाकर रख लेना चाहती है.

लोकतंत्र में चुनाव एक यज्ञ है. यज्ञ पुरोहित के दम पर नहीं या जजमान के भी दम पर नहीं, हवन में डाली जा रही छोटी छोटी समिधाओं के दम पर होता है. हम सब एक एक उसी समिधा का कण हैं. लोकतंत्र के चुनाव यज्ञ में पड़ जाने के बाद हमारा निजी अस्तित्व समाप्त हो जाएगा. लेकिन यज्ञ कुंड से ऐसी रोशनी और सुगंधि का प्रचार होगा जिसे जानकर दुनिया कहेगी कि भारत में पूरे विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र पनप रहा है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!