चुनाव विशेषप्रसंगवश

चुनौतियों से निपटना आसान नहीं

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में इस बार राज्य विधानसभा के चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होंगे, यह चर्चा पिछले कुछ दिनों से ज़ोर पकड़ रही है. 2008 के चुनाव में बात कुछ और थी. तब मुख्यमंत्री के रूप में डॉ.रमन सिंह की लोकप्रियता चरम पर थी. विशेषकर दो रुपए किलो चावल ने छत्तीसगढ़ के गरीब आदिवासियों एवं हरिजनों के मन में उनके प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा किया था, जिसका प्रदर्शन उन्होंने भाजपा के पक्ष में वोट देकर किया. यही वजह थी कि भाजपा और कांग्रेस के बीच एक दर्जन सीटों का फासला रहा. भाजपा को 90 में से 50 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को 38 सीटों से संतोष करना पड़ा.

भाजपा के दुबारा सत्ता में लौटने का श्रेय बहुत कुछ चाऊंर वाले बाबा के रूप में विख्यात मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की साफ-सुथरी छवि को था. अब यद्यपि रमन सिंह की छवि पूर्ववत ही है लेकिन उसकी चमक कुछ फीकी पड़ गई है. जिन मुद्दों ने रमन सिंह को जिताया था, वे मुद्दे भी आकर्षण खो चुके हैं. इनमें प्रमुख हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत बीपीएल परिवारों को बहुत सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना. यानी दो रुपए प्रति किलो की दर से 35 किलो चावल अब कोई सनसनी नहीं है.

नागरिक सुविधाओं के लिहाज से यह एक सामान्य घटना है. यद्यपि शासन ने इसमें नया रंग भरने के लिए राज्य खाद्य सुरक्षा कानून को लागू किया है पर केन्द्र सरकार के खाद्य सुरक्षा अधिनियम ने इसे फीका कर दिया है. अब दो रुपए किलो चावल मतदाताओं को लुभाने का कोई मुद्दा नहीं है. लिहाजा सन् 2008 में जिस मुद्दे ने रमन सिंह की राह आसान की ती, वह 2013 के चुनाव में बैरंग होता नजर आ रहा है. यानी भाजपा एक प्रभावशाली हथियार से वंचित होती दिख रही है.

भाजपा को दूसरा धक्का कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों की एकजुटता से है. महीने भर पूर्व कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तेवर से भाजपा प्रसन्न थी क्योंकि आंतरिक कलह और जबर्दस्त गुटीय प्रतिद्वंद्विता से कांग्रेस के बिखरने की आशंका थी. कांग्रेस की ऐसी कमजोर दशा से भाजपा को अतिरिक्त लाभ मिल रहा था लेकिन जोगी के तीखे तेवर ढीले पड़े, पार्टी में बिखराव का संकट खत्म हो गया और अब गुटीय नेता जिस एकजुटता का परिचय दे रहे हैं, वह भाजपा के लिए किसी आघात से कम नहीं है.

प्रमुख विपक्ष के रूप में कांग्रेस की मजबूती, उसकी संभावनाओं को घटाती है. और तो और 5 दलों के संयुक्त मोर्चा का अभ्युदय भी उसकी उम्मीदों को धक्का पहुंचा रहा है. यानी संयुक्त गठबंधन के रूप में भाजपा के सामने एक नया फ्रंट खुल गया है, जो चुनाव में वोटों की साझेदारी करने तैयार है. अब यह अलग सवाल है कि संयुक्त मोर्चा अपने प्रभाव क्षेत्रों में किसे ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा- भाजपा को या कांग्रेस को. लेकिन इतना तय है कि उसकी मौजूदगी सन् 2008 के समीकरणों को तहस-नहस करते नजर आ रही है.

भाजपा के सामने एक और मुश्किल सत्ता विरोधी लहर है. प्रत्येक चुनाव में सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ ऐसी लहर स्वाभाविक रूप से बनती है लेकिन जब यह तेज चलने लगती है तो पांसे पलट जाते हैं. चुनाव में यद्यपि अभी एक माह का वक्त है लेकिन ‘अंडर करंट’ की पदचाप सुनाई देने लगी है. कोई आश्चर्य नहीं, मतदान तिथि के नजदीक आते-आते यह बड़ी लहर बन जाए और बड़ा उलटफेर कर दे ठीक 1977 की जनता लहर की तर, जिसका अहसास चुनाव विशेषज्ञों को भी चुनाव के बाद हुआ. देशव्यापी उस लहर ने कांग्रेस को केन्द्र की सत्ता से बेदखल कर दिया था.

भाजपा के सामने एक और चुनौती है बेलगाम नौकरशाही और भ्रष्टाचार. मुसीबत यह है कि इसकी चर्चा इतनी सघन है कि हर दूसरा आदमी इस पर भड़ास निकालते नजर आता है. संवेदनशील और जनोन्मुखी प्रशासन का दावा करने वाली राज्य सरकार के सामने यह बड़ा संकट है. स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ने अपने चुनावी अभियान में इसे प्रमुख हथियार बना रखा है. यद्यपि भ्रष्टाचार सार्वभौम है, फिर भी यह बीमारी मतदाताओं के मन में वितृष्णा का भाव पैदा तो करती ही है. जाहिर है, यह सवाल किसी न किसी रूप में मतदाताओं खासकर शहरी मतदाताओं को सोचने पर मजबूर करता है.

छत्तीसगढ़ में जो बड़े-बड़े घोटाले सतह पर आए हैं, उसने किसी न किसी रूप में शासन की छवि को प्रभावित किया है. विशेषकर भ्रष्टाचार से निपटने एवं घोटालेबाजों के खिलाफ कार्रवाई में सरकार की उदासीनता उसके खिलाफ जा रही है. यही बात नौकरशाही को लेकर है. रमन सिंह की छवि एक दबंग प्रशासक की नहीं है, जैसी कि अजीत जोगी की थी. अजीत जोगी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में प्रशासन को अपनी मुट्ठी में रखा था. नौकरशाही पर उनका प्रभावी नियंत्रण था जबकि मुख्यमंत्री की सरलता एवं सहजता ने नौकरशाही को मनमानी करने की छूट दे रखी है. इसका असर प्रशासनिक कामकाज में देखने मिल रहा है जिसमें पारदर्शिता का भी अभाव है. मुख्यमंत्री की यह कमजोरी भी पार्टी की संभावनाओं को ठेस पहुंचाती है.

अब सवाल है, क्या पार्टी ने इन स्थितियों पर विचार किया है? क्या भाजपा को लगता है कि विकास का मुद्दा इन सब पर भारी पड़ेगा और मतदाता इसी मुद्दे पर वोट करके उसे लगातार तीसरी बार सत्ता से नवाजेंगे. अगर पार्टी की यही सोच है तो यकीनन वह गफलत में है. दरअसल विकास का अर्थ बहुत व्यापक है. विकास! किस तरह का विकास? किसका विकास? केवल आधारभूत संरचनाओं की बाढ़ से यह सोच लेना कि जनता गद्गद् है, बेमानी है.

विकास के संदर्भ में यह देखा जाना जरूरी है कि राज्य की जनकल्याणकारी नीतियों से सबसे निचली पायदान पर रहने वाले लाभान्वित हो रहे हैं अथवा नहीं. छत्तीसगढ़ में आदर्श स्थिति नहीं है. लालफीताशाही के कारण योजनाओं का समुचित लाभ लोगों को नहीं मिल पा रहा है. फिर वह केन्द्र सरकार की मनरेगा ही क्यों न हो. दरअसल हर सरकार के पास विकास का झुनझुना हुआ करता है जो चुनाव के वक्त जोर-शोर से बजता है. भाजपा भी इसे बजा रही है किंतु एकमात्र इसी मुद्दे से उसकी नैया पार लग जाएगी, कहना मुश्किल है क्योंकि चुनाव में हार-जीत के लिए और भी कारण जिम्मेदार होते हैं. फिर भी पार्टी को उम्मीद है कि विकास का मुद्दा उसका प्रमुख हथियार है जो विपक्ष के तमाम मुद्दों पर भारी पड़ेगा. उसे यह भी उम्मीद है कि निम्न, अतिनिम्न एवं मध्यम वर्ग के हितों के लिए बनी करीब दो दर्जन योजनाएं मतदाताओं को आकर्षित करने एवं भाजपा के पक्ष में वोट करने के लिए पर्याप्त हैं.

लेकिन इस विश्वास के बावजूद भाजपा नेतृत्व आशंकित भी है. क्योंकि इस बार कांग्रेस तमाम अन्तरविरोध के बावजूद पूरी तैयारी के साथ मैदान में है. हालांकि उसके पास कोई तुरुप का पत्ता नहीं है. भ्रष्टाचार, कुशासन और व्यवस्था के खिलाफ रूझान पर उसकी उम्मीदें टिकी हुई हैं. प्रत्याशियों के चयन में भी वह बहुत सावधानी बरत रही है.

पहले चरण की 18 सीटों पर उसने 8 नए चेहरों को टिकिट देकर मतदाताओं की मानसिकता को समझने की कोशिश की है. यानी कांग्रेस फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. ऐसी स्थिति में भाजपा के लिए चुनौती और भी बढ़ जाती है. इसे देखते हुए उसे अपनी रणनीति में बदलाव करने होंगे क्योंकि अब मुकाबला लगभग बराबरी का है. कौन जीतेगा क्या कहा जा सकता है?

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