पास-पड़ोस

बिहार में भाजपा की डगर कठिन

नई दिल्ली | एजेंसी: बिहार विधानसभा की डगर भाजपा के लिये कठिन प्रतीत हो रही है. नरेंद्र मोदी की चुनावी जीत के वक्त वह खुद शायद कल्पना नहीं कर सकते थे कि सत्ता पाने के डेढ़ साल बाद उन्हें ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा, जहां वह और उनकी पार्टी को अपनी सारी ऊर्जा राजनीति के मैदान में सर्वोच्च स्थान बरकरार रखने में लगानी पड़ेगी.

अगर मोदी और भारतीय जनता पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में अपने विरोधियों की चुनौती से उबर नहीं पाते हैं तो दिल्ली में सत्ता पर उनकी पकड़ कमजोर हो सकती है. दिल्ली विधानसभा पर उनके प्रबल विरोधी का कब्जा पहले से ही है.

मोदी के साथ सबकुछ ठीक न होने के संकेत तब मिले, जब पिछले अगस्त में जनता दल युनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में मिले झटके से उबरते हुए बिहार विधानसभा उपचुनाव में 10 में से छह सीटें अपने नाम कर लीं.

वहीं, भाजपा को चार सीटों पर मिली जीत लोकसभा चुनाव में राज्य की 40 में से 22 सीटों, इसकी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी की छह और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की तीन सीटों पर जीत की तुलना में मोदी लहर के घटते प्रभाव को दिखाता है.

राजद के वर्ष 1990 से 2005 के कार्यकाल को कभी जंगल राज कहने वाले नीतीश कुमार को राजनीतिक जरूरत लालू प्रसाद के करीब ले आई है. आगामी विधानसभा चुनाव में नीतीश जनता परिवार के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार रहेंगे. समाजवादियों को फिर से एकजुट कर जनता परिवार का नेतृत्व समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कर रहे हैं.

लालू प्रसाद का यह कहना कि वह संप्रदायवाद के कोबरा का फन कुचलने के लिए अपमानित होने से भी गुरेज नहीं करेंगे और इसके बजाय जहर खाना पसंद करेंगे, इसी संकल्प के साथ उन्होंने विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है.

राजद प्रमुख की निराशा समझने योग्य है, क्योंकि चारा घोटाले में उन्हें दोषी साबित किए जाने से उन्हें राजनीतिक क्षति पहुंची है. केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें सोनिया गांधी की कृपा से बचाने की कोशिश की थी और उनकी संसद सदस्यता खत्म करने वाले न्यायिक फैसले को बदलने के लिए एक अध्यादेश भी लाया गया था, लेकिन उसकी प्रति कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने टेलीविजन कैमरे के सामने फाड़ दी थी. ऐसे में लालू को पीछे हटना ही था, जिसके बाद मौका नीतीश के इंतजार में था.

अन्य पिछड़ी जाति के दोनों नेताओं के संबंध अच्छे नहीं हुए होते, अगर लालू बिहार में यादवों के समर्थन का दावा पेश कर देते, जिनकी संख्या राज्य में पिछड़ी जातियों में सबसे अधिक यानी 16 फीसदी है. लालू प्रसाद ने खुद को जनता परिवार के मुख्यमंत्री पद के मुख्य उम्मीदवार के रूप में तब तक देखा था, जब तक नीतीश कुमार के लिए अनौपचारिक रूप से उनकी उपेक्षा नहीं की गई. नीतीश कुर्मी जाति से हैं, जिसकी राज्य में जनसंख्या सिर्फ 3.7 फीसदी है.

बिहार-उप्र से बाहर के लोगों के लिए जाति का मुद्दा भले ही हास्यास्पद हो, लेकिन इस क्षेत्र की चुनावी गणित में यह मुख्य मुद्दा है. मोदी को भले ही बिहार में मौजूदा जातिवाद से अफसोस हो, लेकिन खुद उनकी पार्टी चुनाव प्रचार में जातिवाद का फायदा उठाने की कोशिश करेगी और इसे दुनिया देखेगी. पार्टी अभी से जातिगत कार्ड खेल रही है और दावा किया है कि मौर्य शासक, चंद्रगुप्त और अशोक, जिन्होंने पाटलिपुत्र पर शासन किया, वे खुद पिछड़ी जाति यानी कुशवाहा या कोइरी थे.

इसे दुर्भाग्यपूर्ण माना जा सकता है कि क्यों भाजपा इस जातीय झंझट में पड़ गई, जबकि इसकी यूएसपी विकास का मंत्र है और इसी एजेंडे पर इसे लोकसभा चुनाव में जीत भी मिली थी. इसका सीधा-सा मतलब है कि पार्टी खुद यह मान रही है कि जातीय समीकरण को काटते हुए चुनाव जीतने की उसकी डगर आसान नहीं है. भाजपा राज्य में सिर्फ ‘मामूली जीत’ की ही उम्मीद कर सकती है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!