इतिहास

बसंत तिवारी की बिदाई !

कनक तिवारी
4 नवम्बर, 2013 को छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार बसंत कुमार तिवारी अस्सी वर्ष की आयु में ज़िन्दगी को अलविदा कह गए. किसी व्यक्ति के अस्सी वर्ष का सक्रिय जीवन उसके अतीत की स्मृतियों को खंगालने का अवसर देता है. तिवारी का जीवन संघर्ष, आलोचना, विवादग्रस्तता, साफगोई, पारदर्शिता तथा फक्कड़पन से लबरेज रहा है.

मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों के प्रतीक बसंत तिवारी संवाद के अंतरिक्ष में ऐसे कई सवाल उछालते रहे हैं जिनका उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन से गहरा रिश्ता रहा है. असमय में पिता का साया उठ जाने से उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ा. यदि उन्हें वे सब अवसर मिले होते जो औसतन एक अच्छे विद्यार्थी को मिलते हैं, तो संभवतः बसंत तिवारी किसी विश्वविद्यालय के यशस्वी प्राध्यापक या प्रशासक हो सकते थे.

पत्रकार के रूप में उनका परिचय उनके व्यक्तित्व का केवल एक हिस्सा है. प्रदेश की राजनीति के एक शीर्ष परिवार से उनका नजदीकी रिश्ता रहा है. आलोचकों बल्कि निंदकों को यही बात नागवार गुजरती रही है. उन्हें यह कहने में गुरेज नहीं रहा है कि बसंत तिवारी को मुख्यतः उन रिश्तों का फायदा मिलता रहा है, जबकि सच इसके विपरीत रहा है.

बसंत तिवारी दिलचस्प, उत्तेजक और पारस्परिक वार्तालापकार भी रहे हैं. संवाद करते समय वे अपनी आँखों से चरित्रों को तलाशते चलते थे. हठवादी मुद्रा और स्पष्टवादिता के बावजूद बसंत तिवारी में आभिजात्य और कुलीनता रही है. वे अपनी बातचीत में स्तर की गिरावट पसंद नहीं करते थे. उनके पास स्मृतियों का अकूत भंडार भी रहा है. घटनाओं, तारीखों और व्यक्तित्वों को लेकर उनके दिमाग की सलवटें तरतीब से कई कहानियाँ सुनाती रही हैं. सत्ता और विरोध के शीर्ष व्यक्तित्वों से उनका काफी परिचय भी रहा है.

बसंत तिवारी का गद्य संयत, संवेदनशील और स्फुरण से भरपूर है. बसंत तिवारी की भाषा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की याद ताजा करती है. वे संस्कृतनिष्ठ और उर्दू शब्दों की भरमार से बचते हुए हिन्दी गद्य का सौष्ठव सुरक्षित रखते रहे. वे एक पत्रकार के रूप में वैयक्तिक नहीं होते थे. उनमें तर्कशीलता प्रधान गुण रही है. इस वजह से उनकी भाषा में उन शब्दों को आने की मुमानियत थी जो तर्क को भोथरा करते हैं. जीवन और जगत को लेकर केवल टिप्पणियाँ करना उनकी पत्रकारिता नहीं रही है. बसंत तिवारी का गद्य मैदानी नदी के शरदकालीन बहाव की तरह रहा है.

बसंत तिवारी की यह खासियत रही है कि उनकी दृष्टिपरकता में जबरिया विरोधाभास नहीं था. उन्होंने अपने लेखन में खुद से जिरह करने की सारी संभावनाओं को खुला रखा. उन्होंने व्यक्तित्वों को लेकर अपनी धारणाओं को बदला, संशोधित किया और अखंडित भी रखा. उनका असमझौतावादी रुख उन्हें परिवार, समाज और परिचितों में अल्पसंख्यक भी बनाता गया लेकिन उन्होंने अपना यह स्वभाव नहीं बदला.

कहते हैं बुढ़ापा सर चढ़कर बोलता है. बसंत तिवारी के साथ यह बहुत अच्छा था कि उनके मस्तिष्क की नमनीयता और लचीलापन बरकरार रहे. उनमें दिमागी बुढ़ापा नहीं आया. अपने से आधी उम्र के युवजन के साथ बैठकर यदि उन्हें बतियाते देखा जाता तो ऐसी कोई दूरी उन युवजनों को भी महसूस नहीं होती थी. इसका एक कारण उनकी पढ़ाकू वृत्ति भी रही हैै. छत्तीसगढ़ के उन बौद्धिकों को उंगलियों पर गिना जा सकता है जिनके लिखने और बोलने के रिश्ते का समीकरण केवल किताबों की कोख से समझ में आता है.

प्रभात त्रिपाठी, राजेन्द्र मिश्र, विनोद कुमार शुक्ल, सियाराम शर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव, निरंजन महावर, रमेश नैयर, विजय गुप्त, सुनील कुमार, ललित सुरजन, जयप्रकाश जैसे कई और नाम हैं जिनकी लिखने की आदत की पूर्वपीठिका में पढ़ने की रुचि ने उन्हें बूढ़ा नहीं बनाया. इस लिहाज से बसंत तिवारी बूढ़े नहीं हो पाए थे.

मैं इस बात से भी परिचित हूँ कि उन्होंने जीवन भर कई मुद्दों और व्यक्तित्वों को लेकर अपने नोट्स लिखे हैं. उनकी पुस्तकों में संस्मरण ही संस्मरण हैं लेकिन उन्होंने व्यक्तित्वों के अंतरंग चित्रण के बदले उनके सामाजिक आकलन का ज्यादा खाका खींचा है. मैंने कई बार बसंत तिवारी के कपड़ों की ओर ध्यान दिया है. सुरुचि उनके वस्त्रों में रही है. यही बात मैंने नरेश मेहता में भी खूब देखी है.

अपनी प्रस्तुति को लेकर भी बसंत तिवारी में एक तरह का सायास आत्मबोध रहा है. अपने पूरे लेखन में उन्होंने बौद्धिक छुटभैय्येपन का वह लबादा नहीं ओढ़ा जो कई नामीगिरामी संस्मरणकार उस समय जरूर ओढ़ लेते हैं, जब उनके प्रतिपाद्य व्यक्तित्व काल कवलित हो जाते हैं. इसके बरक्स बसंत तिवारी ने अपमान, उलाहना और उपेक्षा जैसे हथियारों को जीवन भर झेला. हमारे देश में नेता का बेटा नेता, कलेक्टर का बेटा कलेक्टर, शिक्षक का बेटा शिक्षक और पत्रकार का बेटा पत्रकार बनने जैसी अनुवांशिक परंपराएँ फल-फूल रही हैं. बसंत तिवारी की अगली पीढ़ी भी इसका अपवाद नहीं है.

बसंत तिवारी इस लिहाज़ से अकेले भी नहीं रहे. वे उन तमाम बुद्धिजीवियों में एक हैं जो अपनी पारिवारिक बनावट को इसलिए परिवर्तित नहीं कर सकते क्योंकि उनकी बनावट ही उनके अस्तित्व का सबूत है.

बसंत तिवारी इतिहास पुरुष नहीं हैं. वे भी मध्य वर्ग की उपलब्धियों से कहीं ज्यादा उसकी असफलता के प्रतिमान कहे जाएंगे. पत्रकारिता उद्योग में सेठियों द्वारा श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण अबाध गति से जारी है, बल्कि बढ़ गया है. चरित्रहीन और आशंकित राजनेताओं ने उन सेठियों की दुकानें सजा दी हैं जो पत्रकार होने का स्वांग करते हैं और अपने पत्र के संपादकीय विभाग को बंधुआ मजदूर समझते हैं. ये लोग लाखों रुपए का किराया उन भवनों से डकारते हैं जिनके लिए भूमियां समाचार पत्र के नाम पर शासन द्वारा आवंटित की जाती हैं. न्यायपालिका तक इतनी भयभीत है कि वह ऐसे सवाल जनहित याचिकाओं के माध्यम से उठाने की इजाजत नहीं देती.

इन समाचारपत्रों का संचालन मुनीमों द्वारा किया जाता है. वहां लक्ष्मी अपनी बहन सरस्वती को टूटी कुर्सी पर बरामदे में बिठाती है और खुद एअरकंडीशंड कमरे में बैठकर सत्ता के विष्णु के साथ प्रेमालाप करती है. समाचार पत्र समाज का दर्पण नहीं रह गए हैं. वे कुदरती फसल के खेतों के बदले गमलों में उगाई गई हरित क्रांति का बौना संस्करण हैं. फिर भी समाज है कि अपनी हाथी की चाल से चल रहा है-हाथी का सूफी अंदाज लिए और हाथी की स्मरण शक्ति भी लिए. यदि समाचारपत्रों के संपादकीय वर्ग को उनकी बौद्धिक अधिसत्ता सौंपी जा सकती तो भारत में समाचारपत्र आजादी के बाद एक क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह कर सकते थे.

समाचारपत्रों को अमेरिकी जुमले में चौथा स्तंभ कहना या विश्वविद्यालयों को पांचवां वेद समझना निरी बकवास है. समाचारपत्रों का कारपोरेट जगत लेखकों को लील रहा है, सरे आम उनकी बेइज्जती कर रहा है और उन्हें दिहाड़ी मजदूरों की तरह नौकरी से निकाल रहा है. कई बसंत तिवारी हैं जो यदि बैनेट कोलमेन कंपनी में सत्ताधारी अंशधारकों की तरह जन्म लेते तो पत्रकारिता के नए आयाम गढ़ने का उनको श्रेय दिया जा सकता. लेकिन यह सब एक मिथक है, स्वप्न है, या हताशा की कल्पना. यथार्थ तो कड़ियल धरती पर मवाद की तरह सूख जाता है. घाव अंदर ही अंदर हरा रहता है. यदि संभावनाएँ किसी भी मनुष्य के उत्कर्ष के निर्धारण का कारक होती हैं तो बसंत तिवारी को भी जीवन बेहतर अवसर दे सकता था.

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