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अभूतपूर्व है लेखकों का यह प्रतिरोध

नवीन जोशी
कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादेमी की चुप्पी के विरोध से शुरू हुई लेखकों की अकादेमी-सम्मान-वापसी अब सिर्फ एक अग्रणी साहित्यिक प्रतिष्ठान के विरोध तक सीमित नहीं रह गई है. यह विरोध अखिल भारतीय रूप ले चुका है. कलबुर्गी की हत्या के अलावा इसमें दादरी में इकलाख की हत्या, कुछ हिंदूवादी संगठनों द्वारा फैलाई जा रही सांप्रदायिक घृणा और तर्कवादियों की हत्याओं का विरोध भी शामिल हो गया है. सम्मान वापसी के लिए लेखकों के समर्थन में किया गया सलमान रुश्दी का ट्वीट कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह खतरनाक समय है’ विरोध के व्यापक संदर्भों को स्पष्ट करता है.

केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने इस बढ़ते विरोध को मामूली बताने की कोशिश की है. कुछ लेखकों ने भी सम्मान वापसी को सिर्फ साहित्य अकादेमी के विरोध की नजर से देखा है. पर अब मामला सिर्फ साहित्य अकादेमी की चुप्पी के विरोध तक सीमित नहीं रह गया है. गुजराती कवि अनिल जोशी और कोंकणी लेखक एन शिवदास के बयान इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं. अनिल जोशी ने कहा है कि देश का वातावरण घृणामय हो गया है और लेखकों की आजादी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन गई है. एन शिवदास का कहना है कि हम ‘सनातन संस्था’ जैसे संगठनों का लगातार विरोध कर रहे हैं, जो धर्म के नाम पर लोगों को बरगला रहे हैं और जो तर्कवादियों की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं. बीस से ज्यादा कोंकणी लेखक गोवा में बैठक कर अगला कदम तय करने वाले हैं. साहित्यकारों का ऐसा संगठित प्रतिरोध इससे पहले नहीं देखा गया.

कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि साहित्यकारों की हत्याएं पहले भी हुई हैं, जैसे कवि मान बहादुर सिंह की हत्या. तब साहित्य अकादेमी ने निंदा प्रस्ताव पारित नहीं किया था. पर तब किसी लेखक ने सम्मान वापस भी नहीं किया था. ये तर्क सही हो सकते हैं. पर आज मामला साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त एक लेखक की हत्या का ही नहीं है. लेखकों की चिंता का वृहद दायरा अफवाहों और कुतर्कों से फैलाई जा रही नफरत का है. एक गुंडे द्वारा दबंगई में की गई मान बहादुर सिंह की हत्या और कलबुर्गी की हत्या की स्थितियों में फर्क देखा जाना चाहिए. विज्ञानसम्मत लेखन करने वाले और तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर तथा गोविंद पानसरे की हत्या क्यों की गईं? हत्यारे कौन हैं और किन संगठनों से संबद्ध हैं? उन्हें कहां से संरक्षण मिल रहा है? इन हत्याओं के विरोध में सत्ता प्रतिष्ठान चुप क्यों है? हमलावरों और घृणा फैलाने वाले संगठनों पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? दादरी इलाके में गोरक्षा के नाम पर आधा दर्जन संगठन कैसे और क्यों सक्रिय हो गए?

इन सवालों पर चुप्पी नहीं ओढ़ी जा सकती. देश की लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, परस्पर सम्मान और सह-अस्तित्व की परंपरा पर आंच नहीं आने देनी चाहिए. नवरात्र के शुरू होते ही गुजरात के गोधरा में अगर ऐसे बैनर लग जाएं कि अपनी बेटियों को ‘लव जेहाद’ से सुरक्षित रखने के लिए गरबा में मुस्लिम लड़कों को न आने दें, तो क्या देश की गंगा-जमुनी सांस्कृतिक विरासत खतरे में नहीं दिखाई देती? लेखक लिखकर तो अपनी आवाज उठाता ही रहा है, आज अगर सम्मान लौटाकर विरोध दर्ज करना उन्हें अनिवार्य लग रहा है, तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. अमर उजाला से

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