प्रसंगवश

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 150 साल

यतीन्द्र सिंह
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक, अपने देश में दोहरी न्यायिक प्रणाली प्रचलित थी– शाही दरबार यानि कि प्रसीडेन्सी शहर कलकत्ता, बम्बई, एवं मद्रास में सर्वोच्च न्यायालय और बाकी जगह ईस्ट इंडिया कम्पनी की सदर अदालतें. यह दोनो समानांतर न्यायायिक प्रणाली, स्वतंत्र, लेकिन अक्सर एक ही क्षेत्राधिकार पर कार्य करने के कारण एक दूसरे कड़ी नज़र रखती थीं. इसका परिणाम तो आपस में लड़ना और अव्यवस्था था. इसी कारण इस बहस ने जन्म लिया की दोनो को मिला देना चाहिये.

आज़ादी की पहली लड़ाई, 1857 में, लड़ी गयी. इसके बाद, अंग्रेजी हुकूमत ने, भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से ले लिया. अब दोनो न्यायिक प्रणाली का मिलन आवश्यक हो गया.

इंडियन हाई कोर्ट अधिनियम 1861 ने दोहरी न्यायिक प्रणाली को समाप्त करने का रास्ता खोल दिया. अधिनियम के अन्दर, लेटर पेटेंट के द्वारा, कलकत्ता, बम्बई, और मद्रास सर्वोच्च न्यायालय की जगह उच्च न्यायालय एवं अन्य किसी भाग में भी उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती थी.

सबसे पहले, कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय की जगह उच्च न्यायालय बना. उसके बाद बम्बई, और मद्रास उच्च न्यायालय बने. यह न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय एवं सदर अदालत के मिश्रन थे और उन्हीं का न्यायाधिकार उनके पास आया. इसी कारण आज भी, इनके पास वित्तीय सीमा के ऊपर सब तरह के मुकदमें करने का मूलाधिकार है. इनके अतिरिक्त, इस समय इस तरह का अधिकार, केवल दिल्ली उच्च न्यायालय के पास है.

बंगाल की सदर अदालत कलकत्ता में स्थित में स्थित थी. यह अदालत, उत्तर-पश्चिम प्रदेशों पर भी न्यायिक अधिकार रखती थी. लेकिन यह उचित समझा गया कि इनके लिये, एक अलग से सदर अदालत बनायी जाय. यह काम बंगाल रग्यूलेशन 1831 के अन्तर्गत किया गया. इस सदर अदालत को इलाहाबाद में शुरू होना था पर यह आगरा में शुरू हुई. पहले तीन उच्च न्यायालयों के गठन के बाद केवल उत्तर-पश्चमी प्रदेशों की सदर एवं निज़ामत अदालत बची थी.

24 जून 1864 को, सक्रेटरी ऑफ इंडियन स्टेट ने, गवर्नर जेनरल से, उत्तर-पश्चमी प्रदेशों के लिये उच्च न्यायालय बनाने के लिये राय पूछी. गवर्नर जेनरल ने इसके लिये अपनी सहमति दे दी. 17 मार्च 1866, उच्च न्यायालय बनाने के लिये, लेटेर पेटेंट जारी किया. यह 24 जून 1866 को सरकारी गज़ट में प्रकाशित हुआ. इसी दिन से, उत्तर-पश्चमी प्रदेशों के उच्च न्यायालय की स्थापना हुई और सदर एवं निज़ामत अदालत समाप्त हुई.

सदर एवं निज़ामत अदालत आगरा में चल रही थी इसलिये यह उच्च न्यायालय वहीं शुरू हुआ. 1868 में, इसकी एक बेन्च इलाहाबाद में शुरू हुई और 1869 से, उच्च न्यायालय इलाहाबाद में बैठने लगा. तभी से, इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तरह से जाना जाने लगा.

सरोजिनी नायडू रोड पर, चार सरकारी इमारत, अगल बगल हैं. दो इसके पूरब में और दो इसके पश्चिम में हैं. पूरब की दो इमारतों में, उत्तरी इमारत में बोर्ड ऑफ रेवेन्यू और दक्षिणी में एच्च न्यायालय चलता था. 1916 में, उच्च न्यायालय की नयी इमारत बनी. तब उच्च न्यायालय नयी इमारत में आ गया और उसकी पुरानी इमारत में, इस समय पुलिस मुख्यालय चलता है.

इस बात में कुछ भ्रांति है कि उच्च न्यायालय किस इमारत में चलता था. कुछ का कहना है कि यह वहां चलता था जहां इस समय बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की इमारत है. लेकिन पुलिस मुख्यालय के पुरालेख बताते हैं कि पुलिस मुख्यालय पहले वहां चलता था जहां कि इस समय पोस्ट ऑफिस है और उच्च न्यायालय के नयी इमारत पर जाने पर यह वहां चलने लगा जहां उच्च न्यायालय चलता है. उनके मुतबिक वहां इस तरह का एक शिलान्यास भी था पर वह टूट गया है.

इस समय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक बेन्च लखनऊ में भी बैठती है. इसका कारण ऐतिहासिक है.

तीन प्रेसीडेन्सी शहरों के लिये नियम बनाये जा सकते थे पर नये अधिकार में आये क्षेत्रों के लिये नियम बनाने का अधिकार नहीं था. इन क्षेत्रों का प्रबन्ध, गवर्नर जेनरल अपनी प्रबन्धकारी शक्ति के अन्तर्गत करने लगे. इस तरह के क्षेत्र अनियंत्रित (नॉन-रेग्यूलेशन) कहलाते थे. अवध इसी तरह का एक क्षेत्र था.

अवध में न्यायिक कमिशनर अदालत की स्थापना 1856 में हुई. इसका दर्जा, अवध कोर्ट अधिनियम 1925 से बढ़ाया गया. यह लखनऊ में बैठता था. इसका विलय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के साथ 26 जुलाई 1945 को कर दिया गया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बेन्च का लखनऊ में बैठने का यही कारण है.

यह साल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 150वां एवं इसकी इमारत का 100वां साल है. इसके उपलक्ष में, उच्च न्यायालय ने साल भर तक समारोह आयोजित करने की योजना बनायी है. इसकी शुरुआत, 13मार्च 2016 को राष्ट्रपति एवं मुख्य न्यायाधीश की उपस्थित में हुई. साल भर चलने वाले समारोहों में, गोल्फ प्रतियोगिता, न्यायाधीशों के बीच एक क्रिकेट मैच, और साल भर चलने वाले भाषण एवं सेमिनार हैं.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का गौरवशाली इतिहास रहा है. यदि इसने किसी व्यक्ति को प्रधान पद (प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी) से पदच्युत किया है तो किसी वयक्ति को प्रधान पद (मुख्य मंत्री कल्यान सिंह) पर पुनः बैठाया है. इसने इमरजेन्सी के कहर को बहादुरी एवं न्यायिक स्वतंत्रता के साथ झेला है. इसमें शक नहीं इलाहाबाद उच्च न्यायालय अपने गौरवशाली परंपरा को कायम रखेगा.

* लेखक छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे हैं.

error: Content is protected !!