प्रसंगवश

जोगी होने का मतलब-3

दिवाकर मुक्तिबोध
नया छत्तीसगढ़
तिथि 1 नवम्बर सन 2000. इस दिन मध्यप्रदेश से अलग होकर नया छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया और अजीत जोगी इसके प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में चुने गए. 90 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में चूंकि कांग्रेसी विधायकों की संख्या सर्वाधिक 48 थी इसलिए संवैधानिक दृष्टि से कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिला. इसके पूर्व म.प्र. में रहते हुए राजधानी के सवाल पर एवं नेतृत्व के मुद्दे पर कांग्रेसी राजनीति में खूब रस्साकसी चलती रही. राजधानी के मुद्दे पर भी म.प्र. कांग्रेस बंटी हुई थी तथा प्रथम मुख्यमंत्री का पद हथियाने के लिए भी शतरंजी चालें चली जा रही थीं.

नेतृत्व की दौड़ में सबसे आगे थे विद्याचरण शुक्ल. विधायकों का बहुमत भी उनके साथ था. अजीत जोगी समर्थन के मामले में बहुत पीछे थे. आदिवासी नेतृत्व के नाम पर जब उनकी उम्मीदवारी सामने आई, तब महज 2-3 विधायक उनके साथ थे. कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह एवं कमलनाथ की भी उनके नाम पर कोई खास रजामंदी नहीं थी लेकिन विद्याचरण शुक्ल के साथ खांटी विरोध के चलते अजीत जोगी उन्हें मंजूर थे. बहरहाल कांग्रेस हाईकमान के फरमान पर जोगी कांग्रेस विधायक दल के नेता चुन लिए गए और वे प्रथम मुख्यमंत्री बने.

नए प्रदेश के शासक के रुप में जब उनकी दूसरी राजनीतिक पारी प्रारंभ हुई तब उनके व्यक्तित्व की भीतरी परतें खुलनी शुरु हुई. वे सन 2003 तक मुख्यमंत्री रहे और इन तीन वर्षों में उनकी छवि एक ऐसे नेता की बनी जो निरंकुश, तानाशाह, तार्किक, दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न, कुशल प्रशासक एवं सर्वहारा वर्ग के हितों का रक्षक था.

36 महीनों की सत्ता
शासक के रुप में उनके कुछ फैसले निश्चय ही सकारात्मक एवं परिणाममूलक थे किन्तु आम जनता के बीच उनकी राजनीतिक छवि निर्मल, सहृदय एवं सरल इंसान की नहीं बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की बनी, जो जातिगत राजनीति का कायल था तथा जिसे सवर्णो से दूरी बनाए रखना मंजूर था.

सत्ता की राजनीति ने 36 महीनों के भीतर ही कुछ इस तरह कलाबाजियां दिखाई कि उनमें (जोगी) अधिनायकवाद का तत्व अधिक तेजी से उभरा और वह उनके व्यक्तित्व की अच्छाईयों को धुंधला करता चला गया.

यही वजह है सन 2003 का राज्य विधानसभा का पहला चुनाव कांग्रेस नहीं जीत सकी हालांकि पार्टी की हार का एक प्रमुख कारण विद्याचरण शुक्ल की बगावत एवं उनके नेतृत्व में प्रदेश राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की चुनाव में मौजूदगी रही. तानाशाही की यह प्रवृत्ति राजनीतिक में जोगी को सर्वप्रिय नहीं बना सकी हालांकि अनुशासन के जिस डंडे से वे अपने समर्थकों को हांकते रहे, यह इसी का परिणाम है कि आज भी प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में उनका गुट ही सबसे बड़ा एवं ताकतवर है.

यह कम अचरज की बात नहीं है कि वर्षों से व्हील चेयर पर बैठा इंसान, जिसका आधा अंग करीब-करीब निर्जीव है, प्रदेश कांग्रेस का सर्वाधिक ताकतवार नेता बना हुआ है तथा जिसका कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में भी पूरा दखल है और जिसकी बात पार्टी हाईकमान में ध्यान से सुनी जाती है.

जब साय पर बरसी लाठियां
ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं कि जो यह साबित करते हैं कि जोगी के व्यक्तित्व में राजनीतिक सकारात्मकता का अभाव है. मिसाल के तौर पर उनके शासनकाल में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं पर वहशियाना लाठीचार्ज के मामले को लिया जा सकता है.

इस घटना में भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं सांसद नंदकुमार साय गंभीर रुप से घायल हो गए. उनके घुटने पर जो लाठियां पड़ी उसका दर्द वे आजीवन नहीं भूल सकते. उनकी चाल में स्थायी लंगड़ाहट आ गई.

इस घटना के बाद राजनीति इस कदर गरमाई कि इसकी जांच के लिए विधानसभा की एक समिति गठित की गई. समिति की रिपोर्ट विधानसभा में पेश की गई और इसे सर्वसम्मति स्वीकार भी कर लिया गया. रिपोर्ट में रायपुर के तत्कालीन कलेक्टर अभिताभ जैन एवं एसपी मुकेश गुप्ता को सदन में बुलाकर भर्त्सना की सजा तजवीज की गई थी तथा निर्णय लेने का अधिकार तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला पर छोड़ दिया गया था.

यह संयोग ही था कि विधानसभा पटल पर रिपोर्ट पेश करने के वक्त मुख्यमंत्री अजीत जोगी सदन में मौजूद नहीं थे. जब उन्हें पता चला तो वे बहुत भन्नाए तथा उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को आड़े हाथों लिया.

बाद में उनके निर्देश पर सर्वसम्मति से पारित रिपोर्ट रद्द की गई और उनके स्थान पर नई रिपोर्ट तैयार करवा कर खानापूर्ति की गई. जाहिर है इस घटना पर विधानसभा में जोरदार हंगामा हुआ लेकिन विरोध को अनसुना कर दिया गया.

इस घटना के बाद जोगी विधानसभा अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल से इस कदर नाराज हो गए कि उन्होंने जान-बूझकर उनकी उपेक्षा शुरु कर दी. लंबे चौड़े और मजबूत कद काठी के राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल दबंग, मुंहफट एवं निर्भीक राजनेता के रुप में ख्यात थे. वे म.प्र. विधानसभा के भी अध्यक्ष रहे.

अपनी बुलंद आवाज और ताबड़तोड़ जवाबी हमले के कारण उनकी छवि एक ऐसे राजनीतिक की थी जिससे पार पाना मुश्किल था लेकिन अजीम शख्सियत का यह नेता भी जोगी के आगे भीगी बिल्ली बना रहा. यह शायद उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि उन्हें मालूम था कि विधानसभा चुनाव में उनकी टिकट जोगी की मर्जी पर निर्भर करेगी. लिहाजा वे जोगी को नाराज नहीं करना चाहते थे.

इसे उनकी सहनशीलता कहें या कायरता, अंतिम दिनों में उन्हें अपने संवैधानिक अधिकारों का भी ध्यान नहीं रहा. विधानसभा सत्र बुलाने का अधिकार विधानसभा अध्यक्ष का होता है. उनकी स्वीकृति के बिना सत्र नहीं बुलाया जा सकता. लेकिन जोगी की नाराजगी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि वे विधानसभा सत्र को बुलाने का निर्णय स्वयं करते थे और बगैर विधानसभा अध्यक्ष को सूचित किए नियम की औपचारिकता पूरी कर दी जाती थी. यानी विधानसभा सचिव को जानकारी दे दी जाती थी कि फलां-फलां तारीख को विधानसभा सत्र बुलाया जाए. विधानसभा अध्यक्ष को इसकी खबर बाद में मौखिक रुप से दे दी जाती थी.

जोगी के इस अपमानजनक रवैये से आहत राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल खून के घूंट पीकर रह जाते थे क्योंकि उन्हें अपने लिए चुनाव की टिकट सुनिश्चित करनी थी. जोगी ने उन्हें सन 2003 विधानसभा चुनाव की टिकट उनके निर्वाचन क्षेत्र कोटा से दे तो दी पर तरसा-तरसा कर एवं एक तरह से नाक रगड़वाकर. किसी विधानसभा अध्यक्ष के इस तरह के अपमान का दूसरा उदाहरण शायद ही मिले.

जोगी ऐसी किसी घटना से इंकार कर सकते हैं. ऐसी घटनाओं का कोई दस्तावेजी प्रमाण भी नहीं हुआ करता. आपबीती बताने के लिए स्वयं राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल भी इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन विधानसभा कार्यालय के किसी कक्ष में आप बैठ जाएं तो चर्चाओं में यह बात स्वयंमेव निकल आती है.
जारी..
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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